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बोध : वृत्ति और प्रवृत्ति का
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वह प्रवृत्ति खतरनाक है, जिसका असर
हमारी मनोवृत्तियों पर पड़े।
बहुत साल पुरानी बात है। मेरे माता-पिता ने संन्यास लिया, उनके साथ मेरे छोटे
अभाई ने भी। भगवत्-कृपा! मेरे जीवन में भी संन्यास का वरण हुआ। संन्यासीजीवन में वर्ष बीते, पर जब-जब भी अपने अंतर्मन और उसके आस्रवों को निहारा, लगा कि अभी तक संन्यास अपने सही अर्थों में साकार नहीं हुआ। मैं संसार में हूँ, संसार मुझमें है। कहने को मैं संसार से मुक्त हो गया, पर मैंने एक ओर संसार देखा, जो मेरे अंतर्मन का संसार रहा। अरे, जब तक मन का संसार न छूटे, तब तक बाहर का संसार आकर्षण-विकर्षण का, राग-द्वेष का, सुख-दु:खजनित अहसासों का मकड़जाल बुनता ही रहता है। जैसे ही भीतर के संसार को पहचाना, बाहर का संसार स्वत: पहचान लिया गया। जैसे ही भीतर के संसार के प्रति अंतर्दृष्टि खुली, बाहर के संसार के रहस्य स्वत: उद्घाटित हो गए।
__ अंतर्मन के घर में भला क्या नहीं है ? पत्नी का राग है, बच्चों का राग है, भाई-बहन-परिवार का भाव है, मेरे-तेरे का संत्रास है, सुख-भोग की आसक्ति है, व्यक्ति और मत-मतांध का आग्रह है। माना कि इनसे मुक्त होने के बाद का जगत् इससे बिल्कुल भिन्न, बिल्कुल अभिनव, समग्रत: गूढ, आनंदपूर्ण है, पर पहले मन के इस आसक्त संसार से मुक्त हो। मेरे देखे, संसार के दो रूप हैं - एक, चित्त का संसार और दूसरा, चित्त के बाहर दृश्य संसार। चित्त का संसार बाहर के संसार से ज्यादा सूक्ष्म, किंतु विस्तृत है। जीवन और जगत् के सारे संक्लेशयुक्त परिणाम चित्त से ही जुड़े हुए हैं। इसलिए नज़र आने वाला संसार वास्तव में चित्त के अदृश्य संसार का प्रतिबिंब है।
चित्त के संसार की पैठ इतनी गहरी है कि आँखों का उससे कोई वास्ता नहीं
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