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एक ओंकार सत नाम
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__ 'सबद' और 'शब्द' में बहुत अंतर है। जो शब्द हम उच्चारते हैं, वे तो बोलचाल के हैं। उन शब्दों से भगवत्ता नहीं मिला करती। जिन्हें हम शब्द कहते हैं, उनसे तो हमें ऊपर उठना होगा। उस पराशब्द का श्रवण तो भीतर की नि:शब्द यात्रा से ही संभावित है। वह शब्द अभी भी है। हमारे भीतर उसे सुना जा सकता है। वह शब्द ॐ' है। ॐ हमारी चेतना के अंतस्तल में केंद्रित है, क्योंकि ॐ परमात्मा का वाचक है
और परमात्मा का साम्राज्य हमारे भीतर है। निश्चित तौर पर ॐ भी हमारे भीतर है। इसकी अनुगूंज सुनाई दे सकती है। यह मूल ध्वनि है - न केवल हमारी, वरन् संपूर्ण जगत् की भी। विचारों से जितने शांत बनोगे, उसकी अनुगँज उतनी ही साफ सुनाई देगी। परम शांति में ही परम अस्तित्व रहता है।
चित्त की परम शांति में शब्द ध्वनित नहीं होते। वहाँ तो हमारा अस्तित्व ही ध्वनित होने लगता है। उस ध्वन्यावस्था का नाम ही 'ॐ' है। यह वह क्षण है जब गंगोत्री गंगा में समा जाती है। 'सुरत समानी सबद में' - जब हमारी सारी स्मृति इस मूल शब्द में समा जाती है, तो व्यक्ति काल-मुक्त पुरुष हो जाता है। तब अमृत बरसने लगता है। उस समय वीणा नहीं होती, फिर भी संगीत सुनाई देता है।।
___ यह परा-संगीत ही किसी को आगम के रूप में सुनाई दिया, किसी को वेदउपनिषद् के रूप में, किसी को कुरान, बाइबिल या पिटक के रूप में। यह संगीत हमारी चेतना की मूल ध्वनि है। हर व्यक्ति एक स्वतंत्र चेतना है। इसलिए सबके संगीत अपने-अपने ढंग के होते हैं। हमसे भी ऐसा ही अनूठा-निराला संगीत पैदा हो सकता है, जहाँ बजेगी अनहद की बाँसुरी।।
'अनहद बाजत बाँसुरिया' - वह वंशी-रव सुनाई देता है, जिसे 'अनाहत' कहा गया है। जब जप और अजपा-जप – दोनों के पार चलोगे, तभी अनाहत साकार होगा। अनाहत का अर्थ होता है, जो बिना बजाए बजे। दो होठों से तो हर कोई आवाज निकाल सकता है। खोजो वह स्थान, जहाँ बिना अधरों की भी आवाज होती है। दो हाथों से तो बच्चा भी ताली बजा लेगा। साधना तो उस स्थान को ढूँढ़ना है, जहाँ एक हाथ से ताली बजती है।
वह स्थान आत्म-तीर्थ है। वह अनुगूंज आत्मा की झंकार है। अगर हम विचारों और शब्दों से ही भरे रहें, तो उस परा-झंकार से कोसों दूर रह जाएँगे।
मनुष्य जन्म से मृत्यु तक मात्र शब्दों की ही यात्रा करता है। उसके शब्द ही कभी अहंकार का कारण बन जाते हैं, तो कभी क्रोध के। किसी ने अच्छे शब्द कह दिए, तो तुम मुस्करा उठे और बुरे कह दिए तो अपने को अपमानित महसूस करने लगे। शब्दों ने ही अहंकार को बनाया और शब्दों ने ही क्रोध को। देखा नहीं, आदमी शब्दों के मायाजाल के कितना पीछे पड़ा है ! सुबह से शाम तक वह शब्दों
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