Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 147
________________ 146 अन्तर के पट खोल शरीर है। मात्र देह ही शरीर नहीं है। हमारे विचार और हमारा मन भी शरीर के ही दायरे में आते हैं। देह स्थूल शरीर है। विचार देह से सूक्ष्म है। मन शरीर का सबसे सूक्ष्मतम रूप है। शरीर तो परमाणुओं का, पंचभूतों का मिश्रित, संगठित, संपादित रूप है। मन शरीर की पारमाणविक शक्ति है। जैसे-जैसे शरीर का विकास होता है, उम्र का तकाजा मन पर भी लागू होता है। मन, वचन और शरीर ही बहिर्जगत् के योग के आधार हैं। यदि इन्हें सम्यक दिशा दे दी जाए, तो ये अंतर्योग में भी सहायक की भूमिका अदा कर सकते हैं। अध्यात्म की भाषा में अंतर्योंग के लिए देहातीत शब्द का उल्लेख किया जाता है। देहातीत का अर्थ देह की स्थूलता से ऊपर उठना नहीं है। साधक को उपरत होना होता है, देह से भी और मन से भी। आखिर मन भी देह है और विचार भी। देहातीत कैवल्य-दशा है। वही व्यक्ति देहातीत है जो मन से ऊपर है, वचन से ऊपर है, देह से ऊपर है - यानी मनातीत, वचनातीत, कायातीत। देहातीत अनिवार्यत: कालातीत होता है। देहातीत का संबंध होता है आत्मा से और काल का संबंध होता है देह से। काल आत्मा को कुंठित नहीं कर सकता। काल का धर्म परिवर्तन है और परिवर्तन के सारे मापदंड देह से जुड़े होते हैं। जो देह से ऊपर उठ गया, वह काल से भी ऊपर हो गया। इसलिए देहातीत-पुरुष युग-पुरुष नहीं होता। वह होता है - अमर पुरुष, मृत्युजय अमृत-पुरुष। यद्यपि बहिर्जगत् से होने वाला संयोग योग की ही पृष्ठभूमि है, परंतु वह योग कालातीत और अपरिवर्तनशील नहीं है। जिसकी देह गई, उसका जग गया। देह जग से मिली और जग में समा गई। देह में प्रवास करने वाला 'मैं' तो देह के साथ नहीं मरा। 'मैं' तो कालमुक्त है और देह कालग्रस्त। शरीर और जगत् के साथ होने वाला योग आरोपित है। ध्रुवता के गीत ऐसे योग में झंकृत नहीं होते। साथ तो आखिर वह रहता है, जो जन्म से पहले भी जीवित था और मृत्यु के बाद भी संजीवित रहेगा। जीवन की विभिन्न भूमिकाओं को देखते हुए, योग भी कई साँचों में ढला हुआ नजर आता है। बहिर्योग, अंतर्योग और परमयोग, ये तीनों योग के ही प्रतिमान हैं। बहिर्योग बाहर के जगत् से जुड़ना है। अंतर्योग भीतर की ओर बैठक लगाना है। परमयोग भीतर और बाहर, दोनों को ही भूल जाना है। वह तो अपने आपको परमात्मा में ढूँढ़ना/निहारना है। यह योग की पराकाष्ठा है। मुझे यह स्थिति बहुत प्यारी है। परंतु यहाँ से आगे भी एक और स्थिति की संभावना है। मैं उसे योग न कहकर ‘अयोग' कहँगा। अयोग में सारे योग पीछे धकिया दिए जाते हैं। संसार और शरीर का ही नहीं, परमात्मा के प्यार का भी यहाँ वियोग हो जाता है। परमयोग परमात्मा से प्यार है, परंतु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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