Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 149
________________ 148 अन्तर के पट खोल अवस्था कहलाती है जहाँ साधक योग से मुक्त हो जाता है। मन, वचन और काया के समस्त संयोगों से मुक्त दशा ही 'अयोगी केवली' अवस्था है। यह जिनत्व की, निर्वाण की अवस्था है, अमृत-अवस्था है। यह सर्वोच्च अवस्था है। इस स्थिति की बात वही कर सकता है, जो वहाँ तक पहुँचा हो। पतंजलि परमयोगी रहे। उन्होंने जमीन से लेकर शिखर तक के हर सोपान को छुआ है और उसका विज्ञान दिया है। पतंजलि का योगदर्शन अपने आप में धर्म और अध्यात्म का विज्ञान है। इस देश की सारी आध्यात्मिकता एक तरह से 'योगदर्शन' के इर्द-गिर्द ही घूमती हुई नजर आती है। योग की बातों से यदि कोई गुजरे, तभी इन बातों की सार्थकता है। ध्यानयोग के मार्ग से गुजरकर ही कहा जा सकता है कि आत्मा है, परमात्मा है, समाधि है। इसके पहले सब मात्र शब्दजाल हैं। कोई गुजरे, तो ही पग घुघरू बाध मीरा नाची रे' जैसे पदों में कोई मीरा नृत्य करती है और मरुस्थल में अमृत की वर्षा का आनंद उपलब्ध होता है। कैवल्य और वीतरागता, समाधि और मुक्ति का लक्ष्य लिए हुए हम योग के पवित्र मार्ग पर आरूढ़ हों। हम यह जानें कि हम वासना-विकारों के दलदल में हैं। हमें कर्मों और कषायों के कारागार से मुक्ति पानी है। तृष्णा और माया के कारागार से जैसे ही तुम छूटोगे कि मुक्ति की चाँदनी तुम्हें स्वागत करती हुई नजर आएगी। जीवन में कुछ अपूर्व, अलौकिक घटित हो, तो ही हमारे आध्यात्मिक प्रयासों की सार्थकता है। ___अभी तो तुम वेद, गीता और बाइबिल के बारे में कहते हो; फिर वेद-गीता तुम्हारे बारे में कहेंगे। फिर वेद और बाइबिल तुम पर लिखी जाएगी। अभी तो तुम अवतार, पैगंबर और मसीहा के बारे में कहते-पढ़ते हो, पर कैवल्य के द्वार पर पहुँचने पर पीर-पैगंबर, अवतार-तीर्थंकर, बुद्ध-मसीहा तुम्हारे बारे में कहेंगे। अभी तो तुम किसी की मूर्ति के आगे अपना मत्था टेकते हो, फिर दुनिया तुम्हारी मूर्ति के आगे नतमस्तक होगी। श्रेष्ठता की तरफ, कैवल्य की तरह कदम बढ़े तो ही सार्थकता है। अंधकार में तो हैं ही, प्रकाश-पथ के अनुयायी बनें, तो ही योगशास्त्र और योग-दर्शन फिर से जीवित हो पाएँगे, अपनी सार्थकता सिद्ध कर पाएँगे। सबके अंतरघट में स्थित आत्मज्योति को, परमात्मज्योति को प्रेमपूरित प्रणाम। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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