Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 146
________________ कैवल्य के द्वार पर हर हाल में बोध रहे 'मैं एक हूँ, शेष सब संयोग-संबंध हैं। जोग हमारे जीवन का आधार है-इस बात पर हमारा ध्यान केंद्रित हो या न हो, परंतु योग का वियोग जीवन के आँगन में संभव नहीं है। जगत् चाहे भीतर का हो या बाहर का, सारे आयोजन योग के कारण हैं। __ अस्तित्व का हर अंश योग रूप है। योग का अर्थ है जुड़ना। बहिर्जगत् से जुड़ना भी योग है और अंतर्जगत् से जुड़ना भी योग है। बहिर्जगत् से मतलब उस जगत् से है जिसके साथ हमारे अपने बनाए हुए संबंध हैं। अंतर्जगत् का अर्थ शरीर के भीतरी भाग में नहीं है। जहाँ तक शरीर का संबंध है, वह भीतरी रूप से धारण करके भी बहिर्जगत् का ही अंत:पुर कहलाएगा। शरीर बहिर्जगत् की देन है। माता-पिता से शरीर प्राप्त हुआ, इसलिए शरीर अंतर्जगत् नहीं है। वचन और मन भी अंतर्जगत् नहीं कहलाएँगे। महावीर ने उसे बहित्मिा कहा है - जो मन, वचन और शरीर के परिवेश में जीता है। महावीर का मानना है कि परमात्मा का ध्यान तभी हो सकता है जब व्यक्ति मन, वचन और काया के बहिआत्मपन से ऊपर उठकर अंतरात्मा के गंतव्य का मुसाफिर बने। ___मनुष्य बनाम आत्मा के तीन रूप हैं - बहिआत्मा, अंतआत्मा और परमात्मा। बहित्मिा बाह्य जगत् का योग है। अंतआत्मा अंतर्जगत् का योग है। परमात्मा योग-मुक्ति है। वहाँ भीतर और बाहर के भेद नहीं रह जाते। जो भीतर भी परमात्मा को निहारे और बाहर भी, चारों ओर परमात्मा ही परमात्मा को नजर मुहैया करे, वही परमात्म-पद पर प्रतिष्ठित है। वह ऐसा दीपक है, जो देहरी पर विराजमान है। रोशनी की बरसात, वह बाहर भी वैसी ही करेगा जैसी भीतर। इसलिए परमात्मा परम विकास है - अंत: बाह्य का। अंतर्जगत् की अस्मिता विचार और मन से भी सवा कदम आगे है। मन भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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