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अन्तर के पट खोल
उत्तम है। ‘चक्र' संहार कर सकता है, किंतु 'स्वस्तिक' का काम निर्माण करना ही है। ‘स्वस्तिक' में चार दिशाएँ हैं, यानी स्वस्तिक का काम हुआ हर दिशा में व्यक्ति को आगे बढ़ने की प्रेरणा देना । 'स्वस्तिक' भारतीयता का, कर्मठता और जागरूकता का महाप्रतीक है। उसके पास ओछे लोगों के प्रति तिरस्कार नहीं, मात्र करुणा है । वह उनका संहार नहीं करता, वरन् उनका सुधार करता है । जो अच्छे हैं, वे आगे बढ़ें और जो जो बुरे हैं, वे सुधरें, किंतु साथ ही साथ वे भी आगे बढ़ें। इसलिए 'स्वस्तिक' जीवन- - जागरण और कर्मयोग का महान संदेशवाहक है।
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‘स्वस्तिक’ के अलग-अलग कोणों से जुड़ी हुई रेखाएँ अलग-अलग धर्मों का भी प्रतिनिधित्व करती हैं । मार्ग / रेखाएँ चाहे जिस दिशा से आएँ, किंतु हर रेखा केंद्र तक ही पहुँचती है। ‘ओम्' 'स्वस्तिक' का केंद्र है। चाहे जिस मार्ग से चलो या चाहे जिस पंथ का अनुगमन करो, चाहे स्वयं के बल पर चलो और चाहे किसी के सहारे; सबकी गंतव्य-पूर्ण यात्रा ब्रह्म स्वरूप - ओम् पर क्रेंदित है और वहाँ तक जाना और ले जाना ही अध्यात्म का उद्देश्य है । चित्त के विक्षेपों के विलय के लिए ॐ रामबाण ओषधि है। समाधि के लिए चित्त वृत्तियों और विक्षेपों का निरोध अनिवार्य है।
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'ओम्' को हम मात्र शब्द न कहकर जीवन की संपूर्ण अभिव्यंजना ही कहेंगे। 'ओम्' को हमने शब्द माना, इसीलिए 'अ' 'ऊ' 'म' के रूप में 'ओम्' के अलगअलग विभाग खोले । 'ओम्' तो जीवन की अंतर्प्रतिष्ठा है । शब्द को जीवन से अलग किया जा सकता है, लेकिन जीवन को जीवन से पृथक् नहीं किया जा सकता। ‘ओम्' तो गूंगे में भी प्रतिष्ठित है और बहरे में भी । 'ओम्' तो पंचम स्वर है । इसकी करुणा के द्वार खुलने पर गूंगा गूंगा नहीं रह जाता और बहरा बहरा नहीं रह पाता। उसका हृदय ही अभिव्यक्त हो उठता है। हृदय बोलता है 'ओम्' । होठों से ‘ओम्’ बोलना तो अभिव्यक्ति की एकाग्रता और मानसिक ऊहापोह पर चोट है। 'ॐ' का प्रबल दावेदार तो वह है जिसका हृदय खुल गया है। हृदय से उमड़ने वाला 'ओम्' तो अमृत का निर्झर है । वह उसे आनंद से भिगो देता है और उसका रोम-रोम निहाल हो जाता है।
'एक ओंकार सतनाम ' - परम सत्य का नाम तो एक ही है । 'चैतन्य' और 'आनंद' सच्चिदानंद के सत्य से ही जुड़े हुए हैं। सत् का सीधा संबंध आत्म-अस्तित्व और परमात्म-संपदा से है ।
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'ओम्' के तीन वर्ण - अ, ऊ, म त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं । इन्हीं तीन वर्णों का प्रतीक बना है शिवं शक्ति का त्रिशूल । आदिनाथ के अ से ओम् की शुरुआत है और महावीर के म पर 'ओम्' का उपसंहार । चाहे जितने अवतार, बुद्धपुरुष और तीर्थंकर क्यों न होते रहें, सब ओम्-ही-ओम् होते रहेंगे।
संसार के किसी भी कोने में चले जाओ, 'ओम्' का पूर्ण या अपभ्रंश मिल ही
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