________________
साधना का आदर्श : वीतराग
संसार में रहना बुरा नहीं है; बुरा है स्वयं में संसार को बसा लेना।
क फकीर था। बड़ा औलिया। उसके चेहरे पर हमेशा एक रहस्यभरी मुस्कान
रहती थी। उसकी एक आदत थी चोरी करने की। चोरियाँ भी वह कोई हजारोंलाखों की नहीं करता। वह चोरी करता घिसे-टूटे झाड़ की, अधजली लकड़ियों की, माटी के ठीकरों की। वह अब तक कई बार जेल की हवा खा चुका था, फिर भी उसकी चोरी की टेव न गई। लोग उसका सम्मान भी करते थे, किंतु उसकी चोरी की आदत से नाराज भी थे। एक अचौर्य-संत द्वारा होने वाली चोरियाँ भी उनके लिए एक पहेली बन गई थीं।।
एक दिन फकीर के किसी हमदर्द ने उससे कहा, “महाराज! आपका बार-बार चोरी करना और जेल जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। आपको जिन चीजों की जरूरत हो, मुझे कहें। मैं उनकी पूर्ति करूँगा। मगर मेहरबानी कर आप चोरी न करें।"
फकीर हँसा, एक रहस्य-भरे ठहाके के साथ । फकीर ने कहा कि यह संभव नहीं है कि मैं चोरी न करूं। हमदर्द ने पूछा, 'आखिर क्यों ?' फकीर ने गंभीर होकर कहा, 'इसलिए ताकि मैं कारागृहों में जा सकूँ । मुझे चीजों की आवश्यकता है, इसलिए मैं चोरी नहीं करता। मैं तो कारागृहों में जाने के लिए चोरी करता हूँ। वहाँ हजारों बंदी हैं। मैं उन्हें उस संदेश का सम्राट् बनाना चाहता है, जिससे वे अपने बंधन काट सकें।'
मैं भी आना चाहता हूँ आपके कारागृह में। यहाँ सभी बंधे हुए हैं। सभी की ग्रंथियाँ हैं। क्या आप मुझे अनुमति देंगे अपने भीतर के कारागृह में आने की?
सारा संसार एक कारागृह है। आदमी इस कारागृह में जंजीरों से जकड़ा है, बेड़ियों से बँधा है। मनुष्य की नींद इतनी गहरी है कि वह अपने बंधनों को बंधन नहीं मान रहा है। घर की तो याद आती ही नहीं है। कारागृह को ही घर मान बैठा है। देख नहीं रहे
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org