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अन्तर के पट खोल
स्वयं के सामर्थ्य से यदि बाहर निकल आओ तो बलिहारी है। अन्यथा सहयोग लो, जीवन के लिए, आत्म-स्वतंत्रता के लिए।
जहाज भटक जरूर गया है। मगर वह देखो, बड़ी दूरी पर कोई मशाल जल रही है। रोशनी की मशाल बनकर ले चलो स्वयं को उसी प्रकाश-पुंज की ओर। मन के सागर में हमने जीवन की नैया उतार रखी है। नाविक तुम स्वयं हो। अंतर्बोधि और अंतर्दृष्टि की पतवारें अपने हाथ में थामो। जो मशाल दिखाई दे रही है, वहीं है तुम्हारी प्रगति, वहीं है तुम्हारी प्रतिष्ठा। भँवर-जाल को देखकर घबराओ मत, घड़ियाल/ मगरमच्छों से काँपो मत। मौत भले ही सामने खड़ी हो, पर रोओ मत। घड़ियाली
आँसू गिराने से कुछ नहीं होगा। जीवन के लिए तो कुछ करना ही होगा। जो बिदक गया, वह खत्म हो गया और जो साहसपूर्वक चल पड़ा, उसने जिनत्व और बुद्धत्व की जोखिम भरी यात्रा पूरी कर ली। हमें चलना है पिंजरे से बाहर आकाश में, नीड़ से विराट् में, राग से विराग में और विराग से वीतराग में। स्वयं के रामात्मक बंधनों को समझो और अपने चित्त को जीवन के वीतराग-विज्ञान पर ध्यानस्थ करो।
पतंजलि कहते हैं - ‘वीतराग विषयम् वा चित्तम्' - वह चित्त स्थित हो जाता है, जो वीतराग को अपना विषय बनाता है।
मनुष्य का मंदिर बना रहना चाहिए स्वयं के लिए । मनुष्य के मंदिर गिरें और रागद्वेष के खंडहर उभरें, यह तो जीवन के नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक मापदंडों से पलायन है। मनुष्य, भगवान का मंदिर है। यह किसी से चिपकने और किसी से टूटने के लिए नहीं है। यह तो परमात्मा के बसने के लिए है, परमात्मा बने रहने के लिए है।
राग का अर्थ है चिपकना-चोंटना, जैसे चीचड़ गाय के थनों से चोंटता है। राग और प्रेम में फर्क है। प्रेम चोंटना नहीं है, बल्कि दो फूलों का परस्पर मिलना है। अपने मन के पंजों से किसी से चोंट जाना राग है। द्वेष टूटना है, न केवल टूटना वरन् खौलना भी है। राग खतरनाक है, पर द्वेष खौफनाक है। राग के बजाय द्वेष से मुक्त होना सरल है। राग वीतरागता में बदले, यह कोई जरूरी नहीं है। राग का विलय द्वेष में होता है। द्वेष से राग समाप्त नहीं होता, वरन् राग द्वेष की परछाईं बन जाता है। ___राग सुख का अनुयायी होता है। जिससे सुख मिले, सुख का अहसास होता है, राग का संबंध उससे है। सुख प्राप्त करने की इच्छा राग है। व्यक्ति से, वस्तु से, निमित्त से, परिस्थिति से, जिससे भी सुख मिल सकता है, उसकी कामना का नाम राग है। द्वेष राग के विपरीत है। दु:ख का अनुभव होने पर दूसरे के प्रति पैदा होने वाली घृणा, नफरत, आक्रोश ही द्वेष है। सुख-दुःख धूप-छाँह की तरह है। सुख के निमित्त ही कभी दु:ख के निमित्त बन जाते हैं। प्रेम के निमित्त ही कभी क्रोध और खीज के निमित्त हो जाते हैं। यानी राग ही कभी द्वेष में परिणत हो जाता है, तो कभी द्वेष ही राग में बदल जाता है। कल तक जो बेगाने लगते थे, अनजाने लगते थे,
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