Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 142
________________ सहज मिले अविनाशी 141 उसका वास है। यह भी कैसा आश्चर्य है कि नयन-नयन में बसने वाला खुद के नैनों को ही दिखाई नहीं देता। प्रार्थना केवल पाठ बोलता ही नहीं है। प्रार्थना तो प्रतीक्षा है। जो हो रहा है, उसका अंगीकार है। जो आ रहा है, उसका स्वागत है। साँस-साँस में वही रम रहा है। दुनिया रमती है देह में, और वह विहरता है साँसों में। जो अपनी हर साँस को आराधना के लिए न्योछावर कर देता है, उसी की प्रार्थनाएँ परवान चढ़ती है। पग घुघरू बांध मीरा नाची रे। मैं तो मेरे नारायण की आप ही हो गई दासी रे। लोक कहै मीरा भयी रे बावरी, न्यात कहै कुलनाशी रे। पग घुघरू बांध मीरा नाची रे। विष का प्याला राणा जी भेज्या, पीवत मीरा हांसी रे। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनाशी रे। पग घुघरू बांध मीरा नाची रे। यह नृत्य प्रार्थना का अहोभाव है। दुनिया की निगाहों में यह नृत्य नहीं, पागलपन है, पर प्रेमी के लिए तो यह प्रेम का महोत्सव है, परमात्मा-प्राप्ति की सावन-बहार है। परमात्म-प्राप्ति के लिए तो मंदिर की आरती के समान अपने देव के प्रति समर्पित होना होता है। मधुर-मधुर, मंद-मंद जलने वाले दीए की तरह प्रियतम का पथ आलोकित करने की आकुलता, जीवन के मंदिर में होने वाली अखंड आरती प्रार्थना का अर्थ यह नहीं है कि बुद्धि को गिरवी रख दो और हृदय को न्योछावर कर दो। हमारा मस्तिष्क तो हो हृदयमय और हृदय हो मस्तिष्कमय। यही वह पड़ाव है जहाँ ध्यान भक्ति बन जाता है और भक्ति ध्यान। तब तो ऐसी लीलाएँ घटती हैं जिनमें पहचान पाना कठिन होता है कि कौन स्त्री है और कौन पुरुष, कौन प्रेमी है और कौन योगी, आमंत्रण परमात्मा ने दिया है या प्रेमी ने। प्रेमी दोनों ही हैं। ‘एक प्राण दुई गात' सब एकमेव हो जाता है, एकरस हो जाता है, वृक्ष बीज में चला जाता है और बीज वृक्ष बन जाता है। पतंजलि कहते हैं - 'यथाभिमत ध्यानात् वा' - ध्यान हो उसी का जिसका जो इष्ट है। तुम कहते हो, मन डोलायमान है, पर प्रेमी को तो मन का कहीं कोई अता-पता ही नहीं रहता। मन तो विसर्जित हो जाता है प्रेम की आभा में। जहाँ मन है, वहाँ उसकी निकटता का अहसास नहीं है। मन तो निकटता में दूरी लाने वाला है। साधक का तो एक ही विचार होता है, एक ही मन होता है, एक ही गंतव्य होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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