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अन्तर के पट खोल
इसी शब्द से व्याख्यायित किया जा सकता है। भेद-विज्ञान का अर्थ है, स्वयं को चित्त से अलग मानना, चित्त की वृत्तियों से अलग मानना, जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति से अलग मानना, संसार, संसार के प्रतिबिंब और शारीरिक तंद्रा से अलग मानना।
अभी तो सब एक-दूसरे से घुले-मिले हैं, रचे-बसे हैं। जगे हैं तो जुड़े हैं; सो रहे हैं तो सपनों में तैर रहे हैं, जबकि हमारा स्वभाव न तो सोना है न सपने देखना। जो एकरसता है, वह तादात्म्य के कारण है। न तुम झूठे हो, न तुम्हारा पड़ोसी, न संसार झूठा है, न चाँद-सितारे। झूठा है तादात्म्य, संबंधों का आरोपण, आरोहण और अवरोहण।
तादात्म्य ही दु:ख का कारण है। दु:खी होने पर रोते हो और सुखी होने पर खुश नजर आते हो। जबकि सत्य तो यह है कि तुम तो सुख और दुःख दोनों से अलग हो। मैं अलग हूँ, यह बोध ही तो भेद-विज्ञान का मूल फॉर्मूला है। क्रोध है तो क्रोध से, लोभ है तो लोभ से, चोट है तो चोट से, भूख है तो भूख से, अपने आपको अलग मानो।
यदि क्रोध आए तो क्रोध को देखो और यह अनुभव करो कि क्रोध करने वाला मैं नहीं हूँ। मैं तो क्रोध की चिनगारी उठने से पहले भी था। उसके बुझ जाने के बाद भी 'मैं' तो रहेगा। क्रोध तो क्षणिक है, मैं क्रोध नहीं हूँ। ___ चोट लगने पर यह अहसास न करें कि मुझे चोट लगी है। चोट तो शरीर को लगी है और मैं शरीर से भिन्न हूँ। सच्चाई तो यह है कि अगर भेद-विज्ञान सध जाए, तो चोट और दर्द की अनुभूति बड़ी क्षीण होगी, अत्यंत सामान्य और न्यूनतम। शरीर के प्रति जितना लगाव होगा, शारीरिक वेदना हमें उतनी ही व्यथित करेगी। परिणाम जो होना होगा, सो तो होगा ही। भेद -विज्ञान परिणाम से पूर्व होने वाली चीखचिल्लाहट को नहीं होने देता। दर्द और दुःख के बीच भी चेहरे पर उभरने वाली मुस्कान ही चेतना की प्रकाशमान् दशा है।
भूख लगने पर भोजन अवश्य करें, परंतु इस समझ के साथ कि भूख शरीर का स्वभाव है। भोजन मैं नहीं कर रहा हूँ, बल्कि शरीर को करा रहा हूँ। वासना भी उठे, तो भी यही जानो कि वासना शरीर की उपज है। मैं वासनाग्रस्त नहीं हूँ। ___शरीर को जो चाहिए, उसे दीजिए। गर्मी लगे, तो हवा की सुविधा दीजिए। मैल चढ़े, तो नहलाइए। भूख लगे, तो खिलाइए, पर इस स्मृति के साथ कि यह सब मैं नहीं हूँ। जब तक शरीर मेरे साथ है, उसे उसकी सुविधाएँ देंगे। मैं कौन हूँ - मैं इनसे अलग हूँ।
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