Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 125
________________ 124 अन्तर के पट खोल के धरातल पर कोई अनुकूल हो या प्रतिकूल, साधक शोक-रहित और ज्योतिर्मय प्रवृत्तियों में ही रुचि लेता है। उसके जीवन-द्वार पर दस्तक सभी तरह की होती है, मगर अपने अंतर-गृह में वह उन्हीं को प्रविष्ट होने देता है जिनसे उसकी निर्लिप्तता और ज्योतिर्मयता को खतरा न पहँचे, वरन् और भी अधिक सहयोग/बढ़ावा मिले। पतंजलि कहते हैं - 'विशोका वा ज्योतिष्मती'। मन को स्थित करने के लिए यह भी एक राजमार्ग है कि व्यक्ति शोकरहित और प्रकाशमय प्रवृत्तियों में लगा रहे और उन्हीं का अनुभव करे। यह अनुभूति मन को स्थिर और निर्मल करेगी। मैं कौन हूँ' - यह जिज्ञासा प्रकाशमय प्रवृत्ति की प्राथमिक पहल है। मूल बात तो यही है कि तुम अपने आप में डूबो। यह सोचो कि जीवन का मूल स्रोत क्या है ? इसी से सम्यक् दृष्टि उजागर होगी। सम्यक् दर्शन आत्मसात् करने का और कोई उपाय नहीं है। एक साधे सब सधे। 'एक' सध गया, तो सभी कुछ सध गया। सब साधा, पर वह एक न सधा, तो जीवन की साधना अधूरी ही कहलाएगी। कहने को महावीर के पास संपदा थी, बुद्ध भी उतने ही वैभवशाली थे, पर फिर भी वे नई संपदा के लिये निकल पड़े। अगर पैसा और पत्नी ही सुख के, शांति के, सत्य के परम आधार होते तो उन्हें किसी पागल कुत्ते ने थोड़े ही काटा था कि सब-कुछ छोड़-छाड़कर निकल पड़े। पत्नी को जीया। नारी का सान्निध्य पाया। उससे उन्हें सुख भी मिला होगा। संतान भी हुई। उसका माधुर्य भी उन्हें मिला, पर फिर भी वे तृप्त न हो पाए। उनकी आत्मा में अभीप्सा जग पड़ी। वे जीवन के किसी और प्रकाश को पाने के लिए निकल पड़े। अभीप्सा गहरी थी। अत: उसका परिणाम भी हाथ लगा। निश्चय ही पूर्व में भोगे गए भोगों की उन्हें याद भी आई होगी। पत्नी, बच्चे और वैभव भी उनकी स्मृति में उभर-उभर कर आए होंगे, पर उन्होंने अपनी वृत्ति, अपनी मानसिकता निरन्तर उस ओर बनाए रखी, जिसे कि 'विशोका वा ज्योतिष्मती' कहा गया। जहाँ अभाव का शोक न हो, वही अवस्था विशोका कहलाती है। जहाँ मन की वृत्ति प्रकाशपूरित रहती है, स्वच्छ-निर्मल रहती है, उन्नत लक्ष्य की ओर रहती है, वही ज्योतिष्मती कहलाती है। व्यक्ति राग और द्वेष, मोह और शोक - दोनों द्वंद्वों से ऊपर उठे। यह एक दूभर साधना है। कहना सरल है, किंतु इस स्थिति को जीना कठिन है। संसार के सबसे कठिन कार्यों में यह भी एक कार्य है - अपने आपको जानना, अपने आपको मुक्त करना। और तो और, लोगों से गुस्सा तक तो छूट नहीं पाता और सागर लांघने चले हैं संसार का। प्रतिकूल कुछ न हो, तो सभी ठीक है। सब कुछ शांत, सौम्य-मधुर है, थोड़ा-सा प्रतिकूल हुआ कि आँख-नाक से हवा पंक्चर होने लगती है। पूर्व अनुभवों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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