Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 126
________________ पहचानें स्वयं को-'कौन हूँ मैं ?' 125 को बटोरो। उनका मनन करो कि पहले भी गुस्सा किया था, आखिर क्या मिला उससे? स्त्री के साथ या पुरुष के साथ पहले भी जिए, तो तृष्णा तब थी, आज भी वही है। जब पहले तृप्ति न हुई, तो अब कौन-सी आ जाएगी? पहले के गुस्से से कोई गढ़ नहीं जीत लिया था। अब कौन-सा जीत जाओगे? जीवन का हर दिन बीते हुए दिन की पुनरावृत्ति भर होता है। जीवन महज एक पिष्टपेषण है। पीसे हुए को ही पीसते रहना है। मुक्ति तो तभी मिलती है जब तुम मुक्त होना चाहो, वरना बंधन तो हैं ही। बंधन जिस दिन तुम्हें बंधन लगेंगे, उसी दिन मुक्ति की पहली किरण हृदय में उतर आएगी। जीवन में जागरण का शंखनाद ऐसे ही होता है। मैं मानता हूँ, अपन सभी लोग सोए हए हैं। कल भी थे, आज भी हैं, कल भी रहेंगे। तब तक रहेंगे, जब तक स्वत: ही अंतप्रेरणा न जग जाए। मुझे सुनकर कुछ स्फुरण तो होगी, पर परिपूर्णता तभी आ पाएगी जब स्वयं में स्वत: प्यास की लौ उठे। मुक्ति की ओर चार कदम उठे। महानताएँ ऐसे लोगों को ही हासिल होती हैं। शेष तो सब मूर्छा की मधुशाला में डूबे हैं। बोध जगे, तो बात बने। जीवन में चाहिए जागरूकता, आत्म-जागरूकता। हर पल, हर क्षण। बस, वही एक पर्याप्त है। उसी से महाजीवन तथा महासमाधि के सभी द्वार खुलते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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