Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 108
________________ 107 ॐ : सार्वभौम मंत्र गाते हैं, तो उसका प्रारंभ णमो अरिहंताणं' से करते हैं। यदि वे ‘णमो तित्थयराण' कहें, तो कह तो सकते हैं, परंतु वे 'ॐ' से हटना नहीं चाहते, क्योंकि 'ॐ' का 'अ' श्रमण-परंपरा के अनुसार अरिहंत का वाचक है। इसलिए 'ॐ' अर्हत्-मनीषा का मूल प्रतीक है। ___ 'अ' प्रथम स्वर है, तो 'ऊ' हिंदी के अनुसार तो छठा अक्षर है, किंतु संस्कृत के अनुसार 'ऊ' तीसरा स्वर भी है और छठा स्वर भी। 'ऊ' स्वर ऊर्ध्वगामी होता है। 'ऊ' ठेठ नाभि से उपजता है। ॐ ऊर्जा का वाचक है। ज्ञान का प्रतीक ‘उपाध्याय' शब्द उ का ही विस्तार है। 'ॐ' का काम है मानसिक वेदना और व्यथा को व्यक्ति से अलग करना। संपूर्ण 'ॐ' में 'ऊ' ही ऐसा वर्ण है जिसके उच्चारण से शरीर के सारे अवयव प्रभावित और संपादित होते हैं। यदि कोई व्यक्ति मानसिक तनाव से घिर जाए, तो उससे मुक्ति पाने के लिए वह 'ॐ' का जोर-जोर से उच्चारण करे। 'ॐ' को वह इस प्रकार बोले, मानो वह सिंहनाद कर रहा हो। यह प्रयोग व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर डालेगा। उसका शरीर पसीना-पसीना होने लगेगा। जब ‘ऊऽ' 'ऊऽ' करते थककर चूर हो जाओ, तो शांत हो जाना। पहले दस मिनट तक तो बोलना और अगले दस मिनट तक शांत पड़े रहना। 'ॐ' का यह प्रयोग वेदना-मुक्ति हेतु किया जाने वाला मंत्र-योग है, ध्यान का एक मार्ग है। एक नई ताजगी देगी यह प्रक्रिया। उससे शरीर को तंदुरुस्त व मन को स्वस्थ कर पाओगे। ॐ' का अंतिम वर्ण 'म्' है। ‘म्' व्यंजन-वर्ग का आखिरी सोपान है। जो 'अ' से चालू हुआ, 'ॐ' की ऊँचाइयों को छुआ और 'म्' तक पहुँचा, उसने मंजिल पा ली। ‘म' के मायने है मंजिल। म से ही मौन विकसित होता है। म से ही मुनित्व का विकास हआ है। म से ही मन बना है, म से ही मनन और म से ही मन और मनुष्य का संबंध है। 'अ' से 'म' की यात्रा 'ओम' की यात्रा है और 'ॐ' की यात्रा परमात्मा की यात्रा है। परमात्मा ॐ' से कभी अलग नहीं हो सकता। 'ॐ' में ही समाया हआ है परमात्मा। ब्रह्म-बीज है यह। 'ॐ' से ही निकली है सारे महापुरुषों और धर्म-प्रवर्तकों की रश्मियाँ। भूमा होने का अर्थ ही यही है कि व्यक्ति ने विराटता को प्राप्त कर लिया। एक बात तय है कि 'ॐ' सबसे विराट् है। 'ॐ' से विराट्र नहीं हुआ जा सकता। इसलिए जो 'ॐ' हो गया, वह अरिहंत हो गया। ‘ओम्' होना ही 'हरि ओम्' होना है। 'ॐ' से ही यात्रा की शुरुआत है और 'ॐ' पर ही उसका समापन। 'ॐ' के बिना सारी साधना अपंग है। _ 'ओम्' और 'स्वस्तिक' का बड़ा गहरा संबंध है। ‘ओम्' यदि भारत की आवाज है, तो स्वस्तिक' उसकी अस्मिता। स्वस्तिक' कर्म-योग का परिचायक है। एक दृष्टि से तो स्वस्तिक कर्मयोग के प्रतीक माने जाने वाले सुदर्शन-चक्र से भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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