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द्रष्टा-भाव : अध्यात्म की आत्मा
वेदों को पहले श्रुति कहा जाता था । श्रुति यानी सुना हुआ। जिन पुरुषों और बुद्ध-पुरुषों ने कहा कि सुना हुआ सत्य हो सकता है, किंतु पूर्ण सत्य तो देखा हुआ होता है। हम जो कह रहे हैं, उसे देखा, सुना नहीं । सुनी हुई चीज को अभिव्यक्ति देते समय घटोतरी -बढ़ोतरी तो होती ही है । शब्दश: कहने में बुद्धि लड़खड़ाएगी। ज्ञान शब्द के पार भी है । फिर कथ्य की बोधगम्यता के लिए हम अपनी बुद्धि को भी सहकारी संस्था बना सकते हैं।
इसीलिए परंपरा में मोड़ आया । श्रुति शब्द की जगह वेद शब्द प्रसारित हुआ। वेद का मतलब है जाना, अनुभव किया । 'वेद' अनुभव किए हुए को कहना है । महावीर के समर्थकों / शिष्यों ने भी शास्त्र - - लिखे, किंतु उन्होंने अपने हर शास्त्र के प्रारंभ में एक बात बड़ी ईमानदारी से कही - 'सुयं मे' - मैंने सुना है । वे यह नहीं कहते कि यह हमने जाना है, देखा है । वे तो बेबाक कहते हैं - हमने सुना है। यह नामुमकिन नहीं है कि हमारे सुनने में, समझने में, सुने हुए को कहने-लिखने में कोई त्रुटि न हो। इसलिए यदि हमें किसी धर्मशास्त्र में कोई बात तर्कसंगत न लगे, अवैज्ञानिक लगे, तो इसका दोष किसी अमृत - पुरुष के मत्थे मत मढ़ना | सुनी हुई बातों को पढ़ लो, फिर उसे जाँचो, परखो, देखो । शास्त्र का ज्ञान पराया है, केवल उसे आत्मसात् न करो। हमारा परम सत्य वही है, जो हमने देखा है, सम्यक् दर्शन किया है । देखे गए सत्य का संदर्भों से मिलान करो । असंगत लगे, तो उसे हटाने में संकोच भी मत करो और संगत लगे, तो उसे ग्रहण करने से कतराना कैसा !
निर्णय करना हमारा अधिकार है। निर्णय वैसा हो, जिस पर न्योछावर और कुर्बान कर सको स्वयं को । आत्म-निर्णय लक्ष्य-सिद्धि की पहली सफलता है
कुछ बातें ऐसी हैं जिनका संबंध सीधे तौर पर न तो दर्शन से है, न श्रवण से । वे सिर्फ परंपरा बनकर चली हैं। मूल लक्ष्य तो खाईं में गिर पड़े हैं, लीक पर चलने की विवशता अभी भी बची हुई है। आज सवेरे की परिचर्चा को ही ले लो। कुछ बातें ऐसी लगीं, जिन पर आम आदमी को भी, संघ- समाज को भी सोचना चाहिए, जैसे नंगे पाँव और नंगे बदन ही चलना चाहिए या विकल्प स्वीकार किया जा सकता है ? पैदल ही चलना चाहिए या यात्रा - साधनों का उपयोग कर सकते हैं ?
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मैंने अनेक साधु-संन्यासियों को नंगे बदन शहर में चलते पाया। आम लोगों को अच्छा न लगे, तो धर्म - प्रभावना कहाँ हुई ? नग्नता उनके लिए है, जिनका समाज से कोई संबंध नहीं है, जंगल में जाकर अपना ज्ञान-ध्यान करते हैं । एक तवास तो अब दराज में चला गया। वे जीते हैं समाज के बीच | वे ऐसे समाज में नग्न रहना चाहते हैं, जहाँ की अपनी सभ्यता है । समाज में आओ, पर कृपया अपनी नग्नता की बजाय यहाँ अपनी साधुता को प्रकट करो ।
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