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अन्तर के पट खोल
ढूँढ़ता है और हूँ' भी उसी में खोजता है। उसका तो जो कुछ भी कर्म होता है, सब कुछ उसी के लिए होता है। पुकार उसी की, निमंत्रण भी उसी को; दर्शन भी उसी का और समर्पण भी उसी को।
तूं तूं करता तूं भया, मुझमें रही ना हूँ।
वारी तेरे नाम पर, जित देखू तित तूं॥ उसकी सारी भावना और स्मृति एकमात्र परमात्मा से जुड़ी हुई होती है। जहाँ जीवन में सिर्फ उसी की याद बनी रहती है, वहाँ ईश्वर स्वयं उसे अपने हृदय में स्थान दे देता है। भक्ति यदि अडिग है, तो जाप, अजपा और अनहद की भी कोई चिंता नहीं रहती। याद जितनी गहन होगी, 'मैं' मिटता जाएगा और 'तू' उभरता चला आएगा। 'मैं' का खोना अहंकार का खोना है। परमात्मप्राप्ति के लिए अहंकार को तो समाप्त होना ही पड़ता है। अहंकार ही तो परमात्मप्राप्ति की सबसे बड़ी बाधा है। सिर्फ परमात्मा के सामने मस्तक नमाने से ही परमात्मा के द्वार पर प्रवेश नहीं हो पाएगा। मस्तक तो नमे अहंकार का।
__ अहंकार के मस्तक का नमना ही परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश पाना है। अहंकार के ठूठ को तो नमाना ही होगा। परंतु ध्यान रखें, अहंकार से एक और खतरनाक चीज है और वह है अहंकार की अस्मिता।
सामान्यत: हम परमात्मा को सभी चीजें समर्पित कर देते हैं, पर अपना अहंभाव समर्पित नहीं कर पाते। नतीजा यह निकलता है कि अहं के समर्पण के बिना समर्पित किया गया सारा मेवा-मिष्टान्न व्यर्थ हो जाता है। ऐसा समझो - कोई आदमी गेट से बाहर निकला। हाथ निकल गया, माथा निकल गया, पेट और पाँव भी निकल गया, पर पाँव की अंगुली गेट में फँस गई। क्या ऐसे व्यक्ति को तुम निकला हुआ कह पाओगे?
ऐसा हुआ। एक दिन संत गोसो ने अपने शिष्यों से कहा, एक भैंस उस आँगन से बाहर निकल गई, जिसमें वह कैद थी। उसने चौंभीते की दीवार तोड़ डाली थी। उसका पूरा शरीर दीवार से बाहर निकल गया - सींग, सिर, पैर, धड़ सब; लेकिन पूँछ बाहर नहीं निकल पा रही थी। और पूँछ कहीं फँसी हुई भी नहीं थी। पूँछ को किसी ने पकड़ भी नहीं रखा था। गोसो ने पूछा, क्या तुम बता सकते हो कि पूँछ क्यों नहीं निकल पा रही थी? शिष्य भी आश्चर्य चकित हुए। वे सोचने लगे कि तभी गोसो ने कहा, जिसने भी इस बारे में सोचा, उसकी पूँछ भी उलझी।
क्या तुम समझ पाए कि यह पूँछ कैसी है, कौन-सी है ? जिसकी समझ में आ गया, उसकी भैंस पूरी बाहर निकल गई। जिसकी समझ में न आया, वे जरा अपनी पूँछ देखें।
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