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अन्तर के पट खोल
परमेश्वर के प्रार्थी हैं। दोनों की प्रार्थना सफल व सही कही जाएगी।
वह सेवा प्रार्थना नहीं बना करती जिसमें इंसान सेवा के बदले में कुछ पाने की लालसा रखता है। एक डॉक्टर और वैद्य की सेवा प्रार्थना कहलाई जानी चाहिए, किंतु उस सेवा को प्रार्थना कैसे कहा जाए, जो सेवा के नाम पर व्यवसाय करती है। उस पुजारी की प्रार्थना भी प्रार्थना नहीं है, जो हजार-पाँच सौ रुपए मासिक वेतन पाने के लिए पूजा-पाठ कर रहा है।
प्रार्थना तो जीवन का आंतरिक भाव है। ईश्वर हमारा व्यक्तिगत विश्वास है। इसलिए वह निजी है। उसकी सर्वव्यापकता हमारे अपने में है। क्लेश, कर्म, विपाक
और कर्म-संस्कार से उसका कोई संबंध नहीं है। ईश्वर आनंद है, वह आनंद की राशि है और हमें आनंद की अभीप्सा है।
सुख में तो उसे मानते ही हो, पर दु:ख के कारण उसे इनकार क्यों करते हो? यदि सुख उसका है, तो दु:ख भी उसका है। पर मैं यह कहूँगा कि न दुःख उसके कारण है और न सुख। सुख और दु:ख तो मन की छाया-प्रतिछाया हैं, ध्वनिप्रतिध्वनि हैं। परमात्म-स्वभाव तो सुख और दुःख दोनों के पार है। उसका स्वभाव तो आनंद है। आनंद का क्या, एक फकीर भी आनंदित रह सकता है। यह तो अंतर्दशा है। उस परमात्मा से प्रेम करने का परिणाम है।
एक प्यारे संत हुए हैं - बोन हायफर। इनके बारे में कहा जाता है कि किसी सम्राट् ने उन्हें कैद में डलवा दिया। सम्राट् की इस हरकत पर हायफर ने कहा था, तुम मुझे कैदखाने में डलवा सकते हो, पर मेरी प्रार्थना को नहीं। मेरी प्रार्थना उतनी ही स्वतंत्र है, जितनी बाहर थी। मैं परमात्मा को जितने आनंद से बाहर पुकारता था, उतने ही भीतर से भी पुकारता हूँ। मेरी प्रार्थना को तुम कैद कर सको, दुनिया में ऐसा कोई कारागृह नहीं है।
प्रार्थना तो तुम्हारे मन का भाव है। अहोभाव ही प्रार्थना है। उसके नाम पर होने वाली पुलक ही प्रार्थना है। प्रार्थना शब्द नहीं, अंतर्दशा है, भावदशा है।
जिस सुख-दुःख को लेकर लोग परमात्मा को मंजूर-नामंजूर करते हैं, वह गलत है। परमात्मा इनका दोषी नहीं है। सुख और दुःख, स्वतंत्र और परतंत्र, जीवन
और मरण - ये सब तो संसार की एक व्यवस्था है। यदि संसार से दीनता चली गई तो इंसान की करुणा और प्रेम-भावना सूख जाएगी। यदि सब बराबर भी हो गए, तब भी तुम प्रसन्न न रहोगे। तुम्हारा सुख, तुम्हारी आवश्यकताओं की पूर्ति में नहीं है, वरन् दूसरों को स्वयं से पछाड़ने में है, पड़ोसी से खुद को आगे बढ़ाने में है।
साम्यवाद की स्थापना मन की तृष्णा का उन्मूलन नहीं कर सकती।
ईश्वर हम लोगों से प्यार करता है और वह चाहता भी है कि हम सब से प्यार करें। जब तक झरना बहता रहेगा, वह निर्झर कहलाएगा और रुक जाने पर वह चार
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