Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 98
________________ 97 परमेश्वर हमारे पास साफ करने का काम सौंपा गया। अंतर्जीवन की दृष्टि से वह बहुत पहुँचा हुआ था। उसे ईश्वर पर बड़ा भरोसा था। वह हमेशा यही कहा करता- ईश्वर हमारे साथ है, हमारे पास है। उसके नाजी गॉड ने उससे व्यंग्य में पूछा, 'अब तुम्हारा ईश्वर कहाँ है?' यहूदी ने हँसती हुई आँखो से उसे देखा और धीरे से कहा, 'वह यहाँ है। मेरे साथ गंदगी में...।' ईश्वर तो वहाँ है, जहाँ तुम हो। उसके लिए तो कोई भी स्थान गंदा नहीं है। अगरबत्ती को जहाँ जलाओगे, वह वहीं अपनी महक देने लगेगी। दीया चाहे माटी का हो या सोने का, ज्योति तो दोनों में ही जगमगा सकती है। जो श्रद्धा की आँखों से जीवित ज्योति को पहचानने की कोशिश करता है, वही ईश्वर का सच्चा पुजारी क्या आपने नहीं सुन रखा है - ‘मोको कहाँ ढूंढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।' ईश्वर की संपदा तो बहुत पास है, सबसे पास, अपने आप से भी पास। स्वयं के जितने करीब पहँचोगे, उसकी निकटता का अहसास उतना ही अधिक होगा। ईश्वर को खोजा नहीं जाता। खोजने से वह कभी मिलता भी नहीं है। खोजा तो उसे जाता है, जो कहीं खो गया हो। ईश्वर कोई सुई थोड़े ही है, जो घास के कचरे में गिर गई हो और जिसे ढूँढ़ने के लिए किसी रोशनी की जरूरत हो। वह तो है, सदा से है। जो अपने साथ-साथ चल रहा है, उसे खोजने की बात भी बड़ी अटपटी है। आँखें उसे देख नहीं पातीं और वह बसा हुआ है आँखों-आँखों में। परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है। वह हमारे जीवन की हर संभावना का साथ सदा से दे रहा है। धनवान धन के सपने नहीं देखता। धन तो उसके पास है। धन के सपने तो वह व्यक्ति देखता है, जिसके पास धन नहीं है। धन उससे बिछुड़ गया, तो उसे धन की याद आ रही है। हमारा परमात्मा हमसे बिछुड़ा नहीं है, इसलिए उसकी स्मृति नहीं आती। स्मृति हमेशा वियोग होने पर आती है। परमात्मा का हमसे वियोग नहीं हुआ। मछली पानी में रहे, तो पानी की याद नहीं आती। मछली को पानी की याद सर्वप्रथम तब आती है, जब उसे कोई पानी से बाहर निकालता है। पानी की याद उतनी सघन हो जाती है कि वह बिना पानी के तड़फने लगती है। हम परमात्मा से अलग नहीं किए जा सकते, क्योंकि परमात्मा हमारा स्वभाव है। काल उसको बाधित नहीं कर सकता। इस जीवन से पहले भी वह हममें था। हमसे पहले भी जो लोग हो चुके हैं, हमारे पूर्वजों के साथ भी वह था। इसीलिए तो पतंजलि ने उसे गुरुओं का गुरु और काल-मुक्त माना है – ‘पूर्वेषाम् अपि गुरु: कालेन अनवच्छेदात्।' __वास्तव में परमात्मा को न पाना है, और न खोजना। जो पाया हुआ है, सिर्फ . उसे पहचानना है। जिसे यह समझ आ गई. उसने पहचान लिया कि ईश्वर क्या है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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