Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 86
________________ 85 समर्पण की सुवास प्रशंसक हूँ, समर्थक हूँ। पतंजलि के इस वैज्ञानिक मार्ग को पूरे विश्व में स्थापित किया जाना चाहिए। पतंजलि को किसी धर्म, पंथ, परंपरा या समय से नहीं बांधा जाना चाहिए। योग का कोई धर्म नहीं होता। सारे धर्मों का मार्ग योग है। दुनिया भर के सारे धर्म जिस एक मार्ग पर आकर एकत्रित होते हैं, उसका नाम योग है। योग समूह में भले ही किया जाता हो, पर यह नितांत व्यक्तिगत है। इसे औरों के बलबूते पर नहीं, अपितु अपने बलबूते पर ही जिया जा सकता है। योग वास्तव में जीवन की दृष्टि है। हमारा हर कार्य योगमय हो, यहाँ तक कि उठना-बैठना, खाना-पीना और पलक झपकना या साँस लेना भी योगमय हो। योग व्यक्ति को आत्म-जागृत करता है, ऊर्जावान बनाता है। वह व्यक्ति की मानसिक दशा को उन्नत करता है। योग के दो मार्ग हैं - एक है संकल्पशील होना; दूसरा है समर्पणशील होना। पहले में स्वयं पर विश्वास है, दूसरे में ईश्वरीय चेतना पर विश्वास है। शुरू में भले ही दोनों अलग-अलग मार्ग लगें, पर गहराई में दोनों एक दूसरे के पूरक लगते हैं। स्वयं से शुरुआत होती है और परमात्मा पर पूर्णता मिलती है। आत्मा प्रस्थान-बिंदु है, परमात्मा मंजिल है। मार्ग चाहे कर्मयोग का हो या ज्ञानयोग का अथवा भक्तियोग का हो या ध्यानयोग का, सारे मार्ग व्यक्ति को बेहतर जीने, उच्च जीवन, पराशक्ति से संपन्न जीवन जीने की कला प्रदान करते हैं। इस जीवन-दृष्टि को योग ने दो विशेष शब्द दिए हैं - एक तो है आत्मसंविधान और दूसरा है ईश्वर-प्रणिधान। आत्म-संविधान का मार्ग संकल्प है, जबकि समर्पण ईश्वर-प्रणिधान का। आत्म-संकल्प ही वास्तव में आत्म-संविधान है, और आत्म-समर्पण ही ईश्वर-प्रणिधान। संकल्प जिनत्व और बुद्धत्व की आधारशिला है और समर्पण भक्त से भगवान होने का मार्ग है। ज्ञान, ध्यान और साधना वास्तव में संकल्प के ही अंग हैं। समर्पण ईश्वर की भक्ति और उसके परम प्रेम का परिचायक है। योग-दर्शन में पतंजलि ने दो सूत्र दिए हैं – 'श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधिप्रज्ञापूर्वकम्' और 'ईश्वर-प्रणिधानात् वा'। श्रद्धा, सामर्थ्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक चरण बढ़ाने से निर्बीज समाधि सधती है। दूसरा मार्ग ईश्वर की भक्ति का है। पतंजलि ने इसे ईश्वर-प्रणिधान कहा है। ईश्वर की शरणागति का नाम ही ईश्वरप्रणिधान है। मार्ग चाहे संकल्प का हो या समर्पण का, दोनों की शुरुआत श्रद्धा से है, निष्ठा से है। संकल्प-मार्ग का पथिक स्वयं की आत्मचेतना से ही साक्षात्कार में लगा हुआ रहता है, जबकि भक्त अपने अहं को भूल जाता है। वह अपने आपको ईश्वर में ही ढूँढ़ता है; न केवल स्वयं को वरन् अपनी अस्मिता को भी। 'मैं' भी उसी में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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