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द्रष्टा-भाव : अध्यात्म की आत्मा
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कर दी है। आखिर द्रष्टा ही तो अपने स्वरूप में स्थित होता है - तदा द्रष्टुः स्वरूपे - अवस्थानम्।
__ द्रष्टा-पुरुष कैवल्य-स्थिति का सच्चा पथिक है। उसे कैवल्य-बोध की शिखरऊँचाइयाँ आत्मसात् होती हैं। द्रष्टा ही खोलते हैं द्वार स्थितप्रज्ञता के। इसलिए द्रष्टा होना स्थितप्रज्ञ होने की पहल है।
दर्शन के पार एक और उच्चस्थिति है, जिसे ‘परा' कहा जाता है। यह जीवनविज्ञान का चौथा तल है। ‘परा' परम स्थिति है, महाशून्य की, परम चैतन्य की स्थिति है। सुनने और देखने के पार की मंजिल। ‘परा' की धुरी पर ही घटित होता है आत्मबोध। परमात्मा का द्वार यहीं खुलता है।
परमात्मा हमारी व्यक्तिगत चेतना का परम विकास है। हमें चलना चाहिए विकास के इस शिखर पर चेतना के महोत्सव में। चाहें तो इस प्रक्रिया से गुजर सकते हैं। मित्र ! सबसे पहले देह-ऊर्जा के पार चलें। ध्यान में उतरें और स्वयं को प्राणऊर्जा पर केंद्रित करें, श्वास लें, श्वास छोड़ें। श्वास ही प्राण-ऊर्जा है। श्वास पर स्वयं को इतना सहज केंद्रित कर लें कि मानो हम सिर्फ श्वास हैं। जब प्राण-ऊर्जा का भरपूर उपयोग/केंद्रीकरण/लयबद्धता हो जाए, तो शरीर को शिथिल छोड़ दें
और परम शांत, परम मौन में डूबे रहें। शून्य स्वरूप सहजतया अनुभूत होगा। यदि विचार/विकल्प आते-जाते लगें तो सजग होकर, होशपूर्वक उन्हें देखें। उनका साथ न निभाएँ। 'द्रष्ट: स्वरूपे अवस्थानम्' - द्रष्टा स्वरूप में स्थित हो जाता है। यह द्रष्टाभाव ही चित्त-वृत्तियों को शांत करते हए स्व-स्वरूप में प्रवेश कराएगा। अगले चरणों में होने वाला अनुभव ही आत्मबोध की अपूर्व घटना है। यही वह वेला है, जब महावीर का मौन और मीरा का नृत्य साकार होता है। सहस्रार की सहज सच्चिदानंद-दशा हमसे रूबरू होती है।
इस संपूर्ण परा-परिवेश के लिए सर्वप्रथम पहल हो सम्यक् दर्शन के लिए, द्रष्टा-स्वरूप के लिए। ध्यान यहाँ तक पहुँचने में आपका सहकारी शुभाकाँक्षी मित्र होगा। द्रष्टा-भाव ही आधार है ध्यान का। द्रष्टा-भाव ही आत्मा है ध्यान की। जो होना है, वह हो। हम मात्र द्रष्टा रहें - हर स्थिति-परिस्थिति के, हर वृत्ति/कर्मप्रकृति के। 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर' बस, मात्र द्रष्टा-भाव हो, साक्षी-भाव हो। द्रष्टा ही आत्मस्वरूप में अवस्थित होता है, वही मुक्ति के द्वार खोलता है।
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