Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 56
________________ वृत्ति, वृत्ति-बोध, वृत्ति-निरोध 55 कई बार लोग मुझे कहते हैं कि हमें ध्यान में आज अमुक तीर्थ या तीर्थ की मूर्ति के दर्शन हुए। यह ध्यान की प्राथमिक उपलब्धि है, पर आखिरी उपलब्धि नहीं। यह अक्लिष्ट-विकल्प' की अभिव्यक्ति है। ध्यान में कोई भगवान या देवीदेवता की मूर्ति दिखाई देती हो तो यह वही देख रहे हो, जिसे पहले देख चुके हो। ध्यान से यदि कुछ प्रकट होता है तो वह मूर्ति के रूप में नहीं, अपितु भगवत्ता के रूप में आत्मसात् होता है। ध्यान की मंजिल के करीब पहुँचते-पहुँचते तो साधक गुरु, ग्रंथ और मूर्ति – तीनों के पार चला जाता है। जब चेतना स्वयं ही परमात्म-स्वरूप बन रही हो, तो वह मंदिर-मस्जिद की आँख-मिचौली नहीं खेलेगी। उस देहरी पर जो होगा, वास्तविक होगा। जैसा होगा, प्रत्यक्ष होगा। फिर हवा के कारण पेड़ के पत्ते नहीं झूमेंगे, वरन अपनी जीवंतता के कारण इठलाएँगे। तब बुद्ध का मौन और मीरा का नृत्य स्वत: साकार होगा। पहले हम मनगढ़त बातों से बाहर आएँ और उन सारे मिथ्या आग्रहों से स्वयं को मुक्त करें, जिनको हमने किसी विकल्प के नाम पर ग्रहण कर लिया है, जिस पर हम मूर्च्छित या आसक्त हो गए हैं। हम अपने बनाए या किराए पर लिए हुए उधार खाते के विकल्पों ऊपर उठे। जितना देखा और जितना जाना, उसका अंतर्मंथन करें और फिर सार को रखें और थोथा को सहज भाव से त्याग दें।। चित्त की एक और कही जा सकने योग्य वृत्ति है और वह है मूर्छा। पतंजलि जिसे निद्रा कहते हैं, वही मूर्छा है। मूर्छा आत्मघातक है। मूर्छा ही संसार है। मूर्छा बेहोशी है। बेहोशी में किया गया पुण्य भी पाप का कारण बन सकता है और होशपूर्वक किया गया पाप भी पुण्य की भूमिका का निर्माण कर सकता है। प्रश्न न तो पाप का है, न पुण्य का। महत्त्व सिर्फ होश और जागरूकता का है। जहाँ जागरूकता है वहाँ चैतन्य की पहल है। यह जागरूकता ही यत्न है, यही विवेक है और यही सम्यक् बोधि है। जागृति धर्म है और निद्रा अधर्म। धार्मिक जगें, क्योंकि उनका जगना ही श्रेयस्कर है। भगवान अधार्मिकों को सदा सोये रखें, क्योंकि इसी में विश्व का कल्याण है। जिस दिन अधार्मिक जगा, उसी दिन खुदा की नींद भी हराम हो जाएगी और यह कहते हुए स्वयं विधाता को धरती पर आना होगा - यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सजाम्यहम्॥ इसलिए आत्मजागरण ही धर्म की भूमिका है और यही साधना का उपसंहार भी। जहाँ सम्राट भरत और राजा जनक जैसी अनासक्ति तथा अंतर्जागरूकता है, वहाँ गृहस्थ-जीवन में भी संन्यास के कमल खिल जाते हैं। चित्त की वृत्तियों और चित्त के संस्कारों से मुक्त होने के लिए सजगता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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