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साधना के सोपान
श्रद्धा एक अकेला ऐसा मार्ग है, जो हमें मंजिल तक पहुँचा सकता है।
मनुष्य जीवन का फूल कुदरत की किसी महत अनुकंपा से खिलता है। बड़े श्रम और बड़े सौभाग्य से इस फूल की पंखुरियाँ खिला करती हैं। जरा देखो उस फूल को। रोम-रोम मुस्कुरा रहा है उसका चेहरा । थोड़ा अपने चेहरे को देखकर यह पता लगा लो कि कहीं हमारा मुँह तो लटका हुआ नहीं है या किसी गुलाब के फूल की तरह खिला हुआ है। चेहरे की बनावटी हँसी पर विश्वास मत करना । यह मुस्कुराहट तो उधार है। दूसरे के सुख-दुःख में शरीक होने की चिकनी-चुपड़ी सांत्वना है। बात तो हृदय की मुस्कुराहट की है। बाहर से खुश दिखाई देने वाला आदमी भीतर से आँसुओं की तलैया से भरा हो सकता है। बाहर से तो किसी के लिए शोक व्यक्त कर रहे हो और भीतर से बड़े प्रसन्न हो रहे हो कि 'चलो, एक तो बला टली ।' कई बार भीतर दुःख-दर्द का लावा उबलता रहता है और चेहरे पर तुम्हें वह भावभंगिमा दर्शानी पड़ती है, मानो तुम-सा कोई और प्रसन्न - बदन नहीं है । यदि ऐसा है, तो यह जीवन का प्रपंच है। जब शोक हो, तो विशुद्ध रूप से शोक ही हो और जब प्रसन्नता हो, तो बाहर - भीतर एकरूपता हो ।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि जीवन के साथ भी हम सरकारी या व्यवसायी बुद्धि लगा रहे हों ? जीवन कोई रिश्वत नहीं है और न ही कोई जायदाद की बढ़ोतरी । जीवन तो बस जीवन है ।
मनुष्य अपने पूरे जीवन में स्वयं का संरक्षण नहीं करता, बल्कि स्वयं को बेचता है। आखिर स्वयं को बेचकर क्या पा रहे हो ? वह सब कुछ जो जीवन और मृत्यु की कसौटी में निर्मूल्य है । यदि खुद को बेच - बेचकर खुद को भी भर लेते, तो
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