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साधना के सोपान
परमात्म-स्तुति जिस क्षण हो, वही तुम्हारे लिए ब्रह्म-मुहूर्त है और जहाँ हो, वहीं मंदिर है। ये क्षण चूकने जैसे नहीं होते। ब्रह्म-मुहर्त चौबीस घंटों में कभी भी साकार हो सकता है। मंदिर कहीं भी मूर्त रूप ले सकता है। मूल्य हमारी स्मृति का है, प्रार्थना का है।
कहते हैं : सूरदास आँखों से अँधे थे। उनकी भक्ति दुनिया के लिए प्रेरणा है। अँधा आदमी अगर ध्यान और स्मृति के मार्गों से गुजर जाए, तो उसके हृदय की आँखें खुल ही जाती हैं।
एक दिन सूर रास्ते पर चलते-चलते गड्ढे में गिर गए। थोड़ी ही देर में उन्होंने पाया कि कोई चरवाहा गड्ढे के पास आकर कह रहा है - ‘बाबा मेरा हाथ पकड़कर बाहर आ जाओ।' चरवाहे ने सूर को बाहर निकाला। सूर ने उसका हाथ मजबूती से पकड़ लिया। चरवाहे ने कहा, मेरा हाथ छोड़ो। सूर मुझे अपनी गायें चरानी हैं। पर सूर ने कहा - मैं तुम्हारा हाथ नहीं छोडूंगा। तुम तो मेरे कान्हा-कन्हैया हो। उसने कहा कि नहीं, मैं तो सिर्फ चरवाहा हूँ। तुम्हें गड्ढे में पड़ा देखा, तो बाहर निकाल दिया और यह कहकर उसने सूर से अपना हाथ छुड़ाया और भाग गया। सूर ने कहा -
हाथ छुड़ाकर जात हो, निबल जानके मोहे।
हृदय से जब जाओगे, तो सबल मैं जानूं तोहे॥ - हृदय से जाना संभव नहीं है। तुम किसी को बाहर मिलने से रोक सकते हो. पर हृदय से नहीं निकाल सकते। प्रार्थना का संबंध तो हृदय से है। हृदय की नौका के सहारे ही परमात्मा के उस पार को पाया जा सकता है।
हृदय की स्मृति ! इससे बढ़कर कोई सुकून नहीं होता। कबीर और आनंदघन ने स्मृति को सुरति कहा है। सुरति का वास्तविक अर्थ स्मृति ही है। कबीर जैसा गृहस्थ योगी तो सुरति को ही परमात्म-प्राप्ति का अमोघ और अचूक उपाय बताते हैं। कबीर ने जाप का विरोध किया, माला-मणियों का भी विरोध किया, मंदिरमूर्ति से भी वे कटे: पर वे अगर किसी पर पूरी तरह डटे रहे, तो वह मात्र सुरति है, स्मृति है। उनकी दृष्टि में तो स्मृति अनहद से भी परा की स्थिति है -
जाप मरै अजपा मरै, अनहद भी मरि जाय।
सुरति समानि सबद में, ताहि काल नहीं खाय॥ मृत्युंजय तो सिर्फ उसी समग्र की स्मृति ही है। स्मृति अगर सम्यक् हो, समग्र हो, तो यही समाधि का सिंह-द्वार बन जाती है।
सदा एक सम्यक् स्मृति हो। स्वयं की सतत स्मृति का नाम ही साधना है। लक्ष्य कभी आँखों से ओझल न हो। सतत एक ही स्मृति और वह है मुक्ति की,
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