Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 82
________________ चरैवेति-चरैवेति होगा, गंगा गंगासागर की निकटता उतनी ही जल्दी पाएगी। प्रवाह यदि तीव्रतम है, तो वह सिर्फ निर्झर ही नहीं है, वरन् विद्युत उत्पादन का कारण भी है। सूर्य स्वयं में आग का गोला है। वह अपनी किरणों को बिखेर रहा है। अगर वह अपनी समग्र किरणों को अपने में समेट ले, तो जरा कल्पना करो कि उसकी शक्ति उससे कितनी गुना हो जाएगी! जब दो बादल परस्पर टकराते हैं, तो अपनी समग्रता के साथ टकराते हैं। उनके संवेग बड़े तीव्र होते हैं। 'तीव्रसंवेगानाम् आसन्नः' जिनके साधन की गति तीव्र है, उनकी समाधि/ सिद्धि शीघ्र सधती है। चाहे जैसी सघन घटा हो, निशा का चाहे जैसा तिमिर डटा हो, किंतु धरती और आसमान को ज्योतित करने के लिए विद्युत् की एक चमक ही काफी है। बस, शर्त यही है कि वह समग्र हो, तीव्रतम हो, परिपूर्ण हो। वास्तव में उद्यम और प्रयत्न ही जीवन की जीवंतता हैं। 'उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथ:। उद्यम करो तो सिद्धि मिलेगी। केवल मनोरथ करने से कार्यसिद्धि संभव नहीं है। मन बड़ा आलसी है। उसे सीढ़ी ही मंजिल लगती है। जब तक पंखों को हवा में न खोलें, तब तक पंछी के लिए आकाश जीवन का उत्सव-स्थल नहीं, अपितु मृत्यु का खतरा दिखाई देता है। पर आकाश में उड़ने का खतरा तो मोल लेना ही होगा, तभी पंखों की सार्थकता है। ____ मैंने सुना है : किसी पक्षी-दंपती के घर एक बच्चा पैदा हुआ। उसके पंख भी लग आए, पर वह उड़ना नहीं चाहता था। उसके माता-पिता ने उसे आकाश में उड़ने के लिए प्रेरित भी खूब किया, पर वह तो आकाश को देखते ही डर के मारे अपनी आँखें मूंद लेता। अपने नीड़ को और मजबूती से पकड़ लेता है। आखिर उसके माता-पिता ने एक योजना बनाई और बच्चे को घोंसले से धक्का दे मारा। पेड़ की टहनी से वह जमीन पर गिरे, उससे पहले ही पता नहीं कैसे, उसके पंख स्वत: ही खुल गए। जमीन तक पहुँचा भी, लेकिन एक पल जमीन पर ठहरे बिना पंखों को फड़फड़ाता हुआ वापस अपने घोंसले में पहुँच गया। बच्चा काँप रहा था, पर दंपती प्रसन्न थे। उन्होंने उसे अपनी गोद में उठा लिया और प्यार से अपने आँचल में भर लिया। यदि मन की मानते रहोगे, तो घोंसले से आगे न बढ़ पाओगे। मन को बुझाओ/ समझाओ। जीवन का अंतर्मार्ग अज्ञात है, किंतु अज्ञेय नहीं। ज्ञात से अज्ञात में उड़ान भरने में भय जरूर लगेगा, पर जिसने सीख लिया - 'चरैवेति-चरैवेति' का कर्मयोग-सूत्र, वह अपने प्रयास को प्रमाद की सीढ़ियों पर नहीं बैठने देगा।' अप्रमाद साधक की सबसे बड़ी शक्ति है। अप्रमाद से ही साधना में गति-प्रगति है। प्रमाद साधना का शत्रु है। अप्रमाद साधना-क्षेत्र का सबसे प्यारा मित्र । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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