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अन्तर के पट खोल
भगवत्ता की, परमात्मा की। यह स्मृति ही हमें साधना के अंतिम चरण तक ले जाएगी, जिसे कहा जाता है समाधि। एक अपूर्व स्थिति, आनंद स्थिति, अंत:स्थ स्थिति।
समाधि को हम आम तौर पर साधना की मंजिल मानते हैं, किंतु वह मंजिल नहीं है। समाधि तो रास्तों का रास्ता है। समाधानों का समाधान है। मंजिल तो कैवल्य है, अमृत-पद है। समाधि, शांत मन:स्थिति का नाम है। मन की उथलपुथल असमाधि है और मन के सरोवर का शांत/निस्तरंग होना समाधि है। चित्त का साफ-सुथरा व स्वच्छ शीशे जैसा होना समाधि ही है। समाधि में प्रवेश करना हो. तो पहले स्मृति से गुजरें, ध्यान में बैठे, प्रभु का स्मरण करें, उसकी सुरति के रंग में भीगें
और फिर शांत हो जाएँ। यही तो वह प्रक्रिया है, जो हमें श्रद्धा से स्मृति में और स्मृति से समाधि में ले जाती है।
साधना का यह दिव्य-पथ प्रज्ञापूर्वक हो। यदि प्रज्ञा नहीं हो, तो श्रद्धा अंध श्रद्धा बन सकती है। संकल्प भ्रांति के गलियारे में ले जा सकता है, स्मृति संसारोन्मुख हो सकती है, समाधि बेहोशी बन सकती है।
इसलिए जो कुछ हो, प्रज्ञापूर्वक हो, बोधपूर्वक हो। प्रज्ञा का अर्थ है बोध, होश। साधना के दूसरे चरण के कारण हम जोश में भी आ सकते हैं। मगर वह जोश किस काम का, जिसमें होश न हो। जहाँ श्रद्धा और प्रज्ञा – दो तत्त्वों का अद्भुत समावेश है, वह वैज्ञानिक भी है और रसपूर्ण भी।
प्रज्ञा कोई पांडित्य नहीं है, यह तो विवेक-बुद्धि है, समझ और सजगता है। प्रज्ञापूर्वक चलने वाला साधक न कभी फिसल सकता है और न कभी च्युत हो सकता है। वह जो करेगा, जितना करेगा, उससे वह परितुष्ट/परितृप्त ही होगा। जितना हुआ, उतना पाया। दीप जल रहे हैं डगर-डगर पर। जितना आगे बढ़ोगे, रोशनी का पैमाना उतना ही बढ़ेगा। सिर्फ ज्योति-दर्शन ही नहीं होगा, मनुष्य स्वयं ज्योतिर्मय होता जाएगा। फिर तो वह ऐसा प्रकाश-पुंज होगा, जो युग-युगों तक ज्योतिर्मय रहेगा और दुनिया उसके प्रकाश में चलेगी। और भी लोगों को इस उज्ज्वल पवित्र मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलेगी, उसी ज्योति के सहारे। ज्योति से ज्योति जलाओ - स्वयं ज्योतिर्मय बनो और सबको ज्योतिर्मयता का सुकून दो। स्वयं भी तिरो और
औरों को भी तिरने-तारने का मार्ग दो। आखिर, खुद पहुँचे हुए लोग ही औरों को कहीं पहुँचा सकते हैं।
आपकी साधनारत आत्मा को प्रणाम। अमृत प्रेम।
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