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अन्तर के पट खोल
सुख को बाँटकर भोगा जाता है, मगर दु:ख भोगने के लिए तो मनुष्य अकेला है, निपट अकेला। मौत की डोली अकेले के लिए ही आती है, पर जिसने इस विज्ञान को आत्मसात् कर लिया कि मेरे अतिरिक्त मेरा और कोई नहीं है, वह अमृत-पुरुष है। उसके लिए मौत अपनी मरजी से नहीं आती। विशुद्ध आत्मज्ञानी को इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त हुआ रहता है। वह तभी मरता है, जब वह मरना चाहता है।
यदि भेद-विज्ञान की ज्योति को अपने मन-मंदिर में जगाना चाहते हो, तो यह स्वीकार करो कि मेरा तो सिर्फ मैं हूँ। मेरे अलावा मेरा और कोई नहीं है, यह शरीर भी नहीं। यह चैतन्य-बोध का आधार-सूत्र है। मेरा केवल मैं हूँ - यह भाव न राग है, न ममत्व। यह 'मैं' का परम सौभाग्य है। यह तो चैतन्य-दशा में प्रवेश हैं। मैं मेरे अलावा किसी को भी मेरा मानूँगा, तो यह मेरा संसार का भाव-सफर होगा। बस, चैतन्य ही मैं हूँ, यह बोध ही तो जीवन में संन्यास का घटित होना है। __संन्यास जीवन की एक दिव्य घटना है। जीवन में संन्यास सही रूप में तो तभी घटित होता है, जब संसार पूरी तरह असार लगता है। यदि कोई अपनी पत्नी को छोड़कर मुनित्व भी अंगीकार कर ले और उसे पत्नी की, पूर्व भोगों की याद आए, तो संसार उसके संन्यास की परछाईं बनकर उसके साथ आया कहलाएगा।
संन्यास देने या दिलाने की प्रथा इतनी आम हो गई है कि आत्मज्ञान का तो कहीं कोई पता ही नहीं है और साधु-संन्यासियों के टोले दर-दर दिखाई देते हैं। जिस दुकान पर एक भिखारी भीख माँग रहा है, वहीं तुम साधु-संन्यासियों को हाथ फैलाते देखोगे। बुद्ध ने जिस अर्थ में 'भिक्षु' शब्द का प्रयोग किया, लोगों ने उसका हुलिया ही बदल डाला।
दो दिन पूर्व स्वीट्जरलैंड से आए एक जोड़े ने मुझे भारत-यात्रा का अनुभव बताया। उन्होंने कहा कि हम सद्गुरु की तलाश में भारत आए। अध्यात्म के प्रति प्यास जगी। हम सबसे पहले वाराणसी पहुँचे। जिस होटल में हम ठहरे, वहाँ हमने साधु को जिस ढंग से माँगते पाया, हम तुलना न कर पाए साधु और भिखारी के बीच। तब हमने जाना कि भारत में गुरु की तलाश करना कितना कठिन है। जो सही अर्थों में सद्गुरु हो, जीवन को अध्यात्म से प्रत्यक्ष जोड़ सके, ऐसे सद्गुरु परम दुर्लभ
साधुता जीवन की महान् संपदा है। उसे रोटी के दो टुकड़ों के लिए कलंकित न किया जाना चाहिए। पेट के लिए साधु मत बनो। पेट के लिए श्रम किया जाना चाहिए। माँगने से लजाना भला।
जब साँसारिकता के भौरे की कोई भी भिनभिनाहट कानों को सुनाई न दे, तब ही संन्यास के द्वार पर कदम रखना बेहतर है। मैं नहीं चाहता कि हम न घर के रहें, न
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