Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 64
________________ भेद - विज्ञान : साधक की अंतर्दृष्टि घाट के। संसार में रहकर हम संसारी कहलाएँगे, लेकिन संन्यास में यदि संसार की पदचाप सुनने में रस लेंगे और उसके बाद भी संन्यासी बने रहेंगे, तो न तो हम पूरी तरह संसारी हो पाए और न ही संन्यासी । संन्यास तो चैतन्य - क्रांति है। यह आत्म-रूपांतरण का द्योतक है । यह कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के उपदेश से मरघटी वैराग्य जग गया और हम झोलीडंडा लेकर निकल पड़े। न रोटी के लोभ से लिया गया संन्यास 'संन्यास' है और न ही किसी की आँखों की शर्म से । संन्यास तो बोध का परिणाम है, आध्यात्मिक होने का आत्मविश्वास है, यह तो चैतन्य - जगत् का आह्वान है, अपने-आप में होना है और अपने अतिरिक्त जो भी है, जितने भी हैं, उन्हें खोना है। संन्यास के द्वार पर कदम रखने से पहले इतना बोध हो ही जाना चाहिए, जिससे व्यक्ति अपनी तृष्णा को समझ सके, मूर्च्छा से आँखें खोल सके। ठीक है, संन्यास 'चरैवेति-चरैवेति' का आचरण है, पर चलेगा वही जो सोने से धाप गया, जगकर उठ बैठा है। संन्यास देने के बाद किसी की मूर्च्छा तुड़वाने का प्रयास बड़ा खतरनाक है। भगवान बुद्ध के छोटे भाई का नाम था नंद । विवाह दोनों ने किया। नंद का मन तो सौंदर्य-प्रेमी था, किंतु सिद्धार्थ ने मोक्ष - मार्ग में अपना मन लगाया। एक दिन, रात के समय अपनी पत्नी को सोए हुए छोड़कर सिद्धार्थ वन में चला गया । सिद्धार्थ की यह चूक भी रही, करुणा भी । सिद्धार्थ ने तपस्या की और बोधि - लाभ प्राप्त किया। 63 सिद्धार्थ धर्म का उपदेश देने के लिए गए, किंतु उनका उपदेश सुनने के लिए नंद न आया। वह महल में अपनी पत्नी के साथ विहार कर रहा था। एक बार नंद प्रेमवश पत्नी का शृंगार करने लगा। उसी समय सिद्धार्थ भिक्षा के लिए उसके घर आए। नंद का ध्यान उस ओर न गया और सिद्धार्थ भिक्षा पाए बिना ही लौट गए। एक परिचारिका ने सिद्धार्थ के वापस लौटने की सूचना नंद को दी । नंद ने अपनी पत्नी से कहा कि मैं गुरु को प्रणाम करने के लिए जा रहा हूँ । पत्नी के शरीर पर आलेपन किया हुआ था। उसने कहा कि आप जाएँ, मगर मेरा यह गीला आलेपन सूखे, उससे पहले ही लौट आएँ । प्रणाम करते वक्त सिद्धार्थ ने नंद को अपना भिक्षा पात्र थमा दिया। नंद ने भिक्षा - - पात्र पकड़ तो लिया, वह शर्म के मारे उनके साथ भी चल पड़ा, लेकिन रहरहकर अपनी पत्नी और उसके निवेदन की याद आने लगी । सिद्धार्थ ने उसे उपदेश दिया और भिक्षु बना डाला। नंद संकोचवश मना न कर सका। नंद का मन भीतर से रो रहा था। आखिर उसने साहस करके ऐसा करने से मना कर दिया, पर सिद्धार्थ ने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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