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वृत्ति, वृत्ति-बोध, वृत्ति-निरोध की ओर जाने से रोकने के लिए विलास, वैभव और आमोद-प्रमोद के बंदोबस्त किए होंगे। यह भी मान लेते हैं कि बुद्ध को पहले कभी किसी मुर्दे को देखने का मौका नहीं मिला होगा। पर बूढ़ा तो देखा ही होगा। हो सकता है, कर्मचारी युवा रखे होंगे, पर शुद्धोधन स्वयं भी तो करीब साठ-सत्तर साल के हो गए थे, जब बुद्ध बीसपच्चीस के हुए होंगे। निश्चय ही राजकुमार ने पहले भी पके हुए बाल, चेहरे की झुर्रियाँ, रोग से पीड़ाग्रस्त लोग देखे होंगे। राजघराने में संतों को भी आते-जाते देखा होगा, पर जिस दिन बुद्ध वैराग्य को उपलब्ध हुए, उस दिन जरूर वे किसी ऐसी मन:स्थिति से आपूरित थे कि उस दिन नजरों के सामने आया बूढ़ा उन्हें बुढ़ापे का अहसास करा गया होगा। बीमार ने उन्हें देह-धर्मों का अहसास करा दिया होगा। मुर्दे से उन्हें जीवन की अंतिम अवस्था का बोध हो गया होगा। संन्यासी उनके लिए मुक्ति-द्वार को खोलने वाला प्रहरी बन गया होगा। बस, ऐसी प्रबल प्रेरणा जाग उठी कि जीवन की दिशाएँ ही बदल गईं। सजग, सचेतन और चिंतनशील व्यक्ति की मेधा और प्रज्ञा कब जाग उठे, कब मूर्छा टूट जाए, कब व्यक्ति बोधि को छू ले, समाधि और जीवन के उन्मुक्त आकाश में छलाँग लगा दे, कुछ कहा नहीं जा सकता। ___ सजगता चाहिए, अनासक्ति चाहिए, विचारने की मेधा चाहिए, फिर पता नहीं कब किसके जीवन में मुक्त आकाश साकार हो उठे, कब कोहरा छंट जाए, कहा नहीं जा सकता।
जहाँ वैराग्य है और अभ्यास भी है, वहाँ योग के अंतर स्वत: उघड़ने लगते हैं। आइए, हम मुक्ति के उन्मुक्त आकाश की ओर चलें। वहाँ हमारी प्रतीक्षा हो रही है। पलकें झुक जाएँ, दृष्टि अंतर्मुखी, शांत, सहज, अंतर्दर्शन, अंतर्बोध, आत्मयोग।
निश्चय ही मन की वृत्तियों पर विजय पाना कठिन है। पर मन के गुलाम होकर जीने की बजाय मन की वृत्तियों पर अपना अंकुश रखना अधिक श्रेष्ठ है। नासमझ लोग वृत्तियों के गुलाम होते हैं। जिन्हें सम्यक् समझ उपलब्ध हो गई, वे वृत्ति-भाव के मात्र साक्षी हो जाते हैं। वे वृत्तियों से उपरत हो जाते हैं। वे आत्मजित् हो जाते हैं। मन के विकारों और मन की वृत्तियों पर विजय प्राप्त करना संसार की सबसे बड़ी विजय है। वृत्तियाँ हमारे लिए चुनौती स्वरूप हैं। कोई महावीर-बुद्ध जैसा पराक्रमशील ही जितेंद्रिय बन सकता है, निर्वृत्ति और परावृत्ति को उपलब्ध हो सकता है।
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