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अंतर के पट खोल
प्रार्थना जोर से भगवान् को पुकारना नहीं है। प्रार्थना तो परमात्म-स्मृति है, अहोभाव है। हम मंदिर इसलिए जाते हैं, क्योंकि वहाँ जाने से शांति मिलती है। पर जहाँ कोलाहल-ही-कोलाहल हो रहा हो, वहाँ शांति कहाँ ! मंदिर जाओ, मौनपूर्वक, परमात्मा की स्मृति से भरे। काव्य-पाठ बहुत हो गए, अब खुद काव्य बनो। अब तो शांति साधो, मन की शांति, उठापटक की शांति। एक ऐसी गहन शांति अंतर्मन में उतरने दो ताकि सुन सको अंतरात्मा का बंशीरव, पहचान सको परमात्मा का मधुरिम स्वर। आत्मा और परमात्मा के बोल इतने धीमे हैं कि उन्हें सुनने और पहचानने के लिए आदमी को गहन शांत होना होगा। इतना शांत जितना यह हिमालय है, ये देवदार के वृक्ष हैं। परम शांति, परम स्वरूप के परिचय की पूर्व-भूमिका है। हम सहज जिज्ञासा भाव से अंतर्बोध की ओर उतरें। खेद-उद्वेग, संग-असंग से स्वयं को बचाकर रखें। शांत मन के लिए ध्यान धरें और ध्यान के लिए प्रतिक्षण-प्रतिपल भीतर-बाहर सजग सचेतन रहें। सजगता ही सूत्र है, सजगता ही आधार है, सजगता ही द्वार है।
'सुमिरन सुरत लगाइकै'- अपनी सुरति, अपनी स्मृति उस ‘तत्त्वमसि' में लगाएँ। सुरति मार्ग है। स्मृति मार्ग है। अंतरमन में रहने वाली सतत आत्म-स्मृति ही ध्यान और योग है। ‘मुख से कछू न बोल'। अधिक बोलने की जरूरत नहीं है। नासमझ अधिक बोलते हैं। समझदार चुप रहते हैं, शांत रहते हैं। जरूरत हो तो बोलते हैं। जरूरत हो, तो बोलना पुण्य है। बिना जरूरत के वाणी या किसी भी चीज का उपयोग करना पाप है। दुनिया में वाणी नहीं, मौन अमर होता है। वाणी तो व्यक्त होती है और बिखर जाती है। मौन संगृहीत होता है और भीतर की ऊर्जा के रूप में विराट होता है। कबीर कहते हैं - ‘बाहर के पट देइके' बाहर की बातों में, बाहर की गतिविधियों में रस लेने की बजाय 'अंतर के पट खोल' । बाहर हो निर्लिप्तता और भीतर हो रसमयता। तू पट खोल, भीतर का पट खोल। बाहर अब तक कई दफा पट खोले हैं, एक पट ऐसा भी खुले जिसे हम अंतर का पट कहते हैं। बाहर के पट भीतर के पट को नहीं खोल पाएँगे, पर अंतर का पट खुल जाए तो बाहर के पटों के खुलने और न खुलने का कोई अर्थ नहीं रहता।
'सुमिरन सुरत लगाइकै' – हमारी स्मृति, हमारी लयलीनता अंतर्मुखी हो, तो अंतर का आनंद, अस्तित्व का आनंद स्वत: झरेगा। निजत्व का रस, निजत्व का सुकून स्वत: आत्मसात् होगा। स्वयं की सतत स्मृति रहे, आज के लिए यही सूत्र है।
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