Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 51
________________ 50 अन्तर के पट खोल 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः'। अभ्यास की निरंतरता और अनासक्ति के द्वारा चित्तवृत्तियों का निरोध किया जा सकता है, चित्त को शांतिमय बनाया जा सकता है। चित्त की वत्तियों का निरोध अभ्यास और वैराग्य से संपन्न होता है। यदि जीवन के अंतर्विश्व का ग्लोब बड़ी बारीकी से पढ़ना है, तो चित्त-वृत्तियों के कोहरे के धुंधलेपन को पहले साफ करना होगा। हम देखना तो चाहते हैं हिमालय के इन बर्फीले पर्वतों को, पर ये जो कोहरा छाया है, वातावरण में जो ओस घिरी है, तो वे कहाँ से दिखाई देंगे। अनुमान से अगर हलकी-सी झलक भी पा लें, तो बात अलग है। पते की बात तो कोहरे के हटने पर ही निर्भर है। इसलिए सबसे पहले हम समझें जीवन के कोहरे को, कोहरे के कारणों को, चित्त को, चित्त की वृत्तियों को। चित्त के टीले इसी हिमालय की तरह लंबे-चौड़े और बिखरे-बसे हैं। चित्त के धरातल पर उसके अपने समाज हैं, विद्यालय हैं, खेत-खलिहान हैं, पहाड़ी रास्ते हैं। उसका अपना आकाश है और अपना रसातल है। वहाँ बसंत के रंग भी हैं और पतझड़ के पत्र-झरे वृक्ष-कंकाल भी। चित्त की अपनी संभावनाएँ होती हैं। आखिर सबका लेखा-जोखा दो टूक शब्दों में तो नहीं किया जा सकता। जहाँ वर्णन और विश्लेषण करते हुए आदमी थक जाता है, वहाँ सीमा पर अनंत शब्द उभरने लगता है। इसलिए यही कहना बेहतर होगा कि चित्त की वृत्तियाँ अनंत हैं यानी इतनी हैं जिन्हें न गिना जा सकता है और न नापा जा सकता है। पर हां, अगर ध्यान दें तो चीन्हा अवश्य जा सकता है। अपने चित्त को पहचानना मुक्ति की ओर उठा पहला सार्थक कदम है। हिमालय में बैठे हैं, पर कुदरत के रंग कितने तब्दील होते जा रहे हैं। कुदरत के सौ रूप दिन-भर में दिखाई देते हैं। चित्त के भी ऐसे ही खेल होते हैं। कभी यह इतना विकृत हो जाता है, जितना कोई पशु हो। कभी यह इतना सुंदर हो जाता है, जितना मसूरी के पहाड़ों के बीच आसमान में खिला यह इंद्रधनुष। कभी यह प्रेम की फुहारों से रसपूर्ण हो जाता है, तो कभी यह गुस्से में साँप-बिच्छू जैसा हो जाता है। कभी यह दया और दान से प्रेरित होकर अपना सब-कुछ लुटाने को तैयार हो जाता है, तो कभी स्वार्थ में अधा होकर औरों को लूटना शुरू कर देता है। यह चित्त है ही ऐसा। पल में राजी, पल में नाराज । पल में मधुर, पल में विषैला। पल में विकार, पल में संस्कार । धूप-छाँव-सा खेल है इसका। कोई समझ ही नहीं पाया है अपने मन को, चित्त को। हर कोई उलझा है उसके प्रभाव में। यही सबके जीवन का प्रेरक तत्त्व बना बैठा है। जैसा जिसका चित्त, वैसी ही उसकी सोच, वैसी ही उसकी लेश्याएँ। ___ महावीर ने चित्त-वृत्तियों को समझने के लिए एक माकूल उदाहरण दरसाया है। वे कहते हैं कि छह राहगीर किसी पहाड़ी रास्ते से गुजर रहे थे। उन्हें भूख लगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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