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अंतर् के पट खोल
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कीर्तिमान है। सहस्राक्षी है मन। वह पर्यटन-प्रेमी है। घुमक्कड़ है। भटकता रहता है वह। दिन में ही नहीं, रात में भी। दिन में विचार-विकल्पों के रूप में और रात को सपनों के मायाजाल में। स्वप्न और विकल्प में ज्यादा फर्क नहीं है। ‘स्वप्नो विकल्पा:'- विकल्प ही स्वप्न है। स्वप्न और विकल्प में कोई बुनियादी भेद नहीं है। दिन में उठने वाले विकल्प दबे हुए स्वप्न हैं और रात को आने वाले स्वप्न विकल्पों का हवाई परिदर्शन है। स्वप्न-मुक्त होना, निर्विकल्प हो जाना, मन की यात्रा का विराम पाना ही आत्म-बोध का गुह्य-द्वार है।
_ विकल्प हमारे भीतर की वृत्ति है। जब तक वृत्तियों के पार न चलोगे, तब तक जीवन की वास्तविकता वृत्तियाँ ही लगेंगी। योग-दर्शन के अनुसार 'वृत्ति-सारूप्यम्' - वह वृत्ति के अनुरूप ही अपना स्वरूप समझेगा। यह आत्म-प्रवंचना है। जब तक ऐसा है, वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न हो पाएगा। ज्ञान/बोध के बिना मनुष्य अस्तित्वगामी नहीं, वरन् मन का अनुगामी होगा। कभी काम के प्रवाह में, तो कभी मोह के गर्त में। कभी माया के मकड़जाल में, तो कभी क्रोध की ज्वाला में। यह मन है। मनुष्य का मन।
मनुष्य के पाँव चलते हैं एक दिशा में, मगर 'मनुआ तो चहं दिसि फिरै' - मन तो दसों दिशाओं में घूमता है। वह चक्रवर्ती है। उसकी पहँच चारों ओर है। बड़ीबड़ी हस्तियों को नतमस्तक रहना पड़ता है उसके राज-दरबार में। परंतु एक ऐसा दरबार भी है, जहाँ उसका दबदबा नहीं है, एक ऐसी दिशा है - ग्यारहवीं दिशा - जहाँ वह नहीं पहुँचता। वह दरबार व्यक्ति के अंतस्तल में है। ग्यारहवीं दिशा स्वयं व्यक्ति के भीतर है। आठ दिशाएँ चारों तरफ हैं - पूर्व से नैऋत्य तक; एक ऊर्ध्व दिशा है और एक अधोदिशा, किंतु ग्यारहवीं दिशा तो तुम स्वयं हो। वहाँ मन की कोई गति नहीं है। वहाँ का प्रवेश-द्वार है - अमन, मनोमुक्ति।
एक व्यक्ति चश्मुद्दीन था। उसकी आँखों पर चश्मा लगा था, एक चश्मा हाथ में था। फिर भी वह एक चश्मा और खरीद रहा था। मैंने कारण पूछा। कहने लगा, एक चश्मा दूर के लिए है, एक नजदीक के लिए। मैंने पूछा, और ये तीसरा? बोला तीसरे की जरूरत इन दोनों को तलाशने के लिए। मैंने कहा, तब एक चश्मा और खरीद लो। कहने लगा - वह किसलिए? मैंने कहा, खुद को देखने के लिए। वह उपनेत्र भी चाहिए, जो दिखा सके तुम्हें मन के पार, निजत्व को।
हमें देखना-ढूँढ़ना चाहिए वह महालोक, जहाँ मन की गति नहीं है। जहाँ सिर्फ अंतर्दृष्टि एवं अंतर्सजगता की गति है। पहचाने मन के व्यक्तित्व को और उजागर करें द्रष्टा-स्वरूप को, ज्ञाता-स्वरूप को, साक्षी-स्वरूप को। एक बात का ध्यान रखें कि मन स्वयं कोई ऊर्जा नहीं है। वह तो मशीन है। जब मनुष्य उसे ऊर्जा देता है, तो
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