Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 39
________________ 38 अन्तर के पट खोल वाराणसी में मैं गंगावासी देवरिया बाबा' से मिला। वे चौबीस घंटों में से पाँच-दस मिनट के लिए अपनी कुटिया से बाहर निकलते, ताकि श्रद्धालुओं को दर्शन मिल सके। वे अपनी कुटिया में नग्न रहते थे, पर जब वे आम जनता के सामने आते, तो सामाजिक दृष्टि से कंबल का एक अंगोछा पहन लेते। ऐसा करने में न तो संत की वीतरागता खंडित होती है, न साधुता। नंगे पाँव चलो, कोई हर्जा नहीं है। स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद है। जहाँ तक हिंसा-अहिंसा का प्रश्न है, रबर की हवाई चप्पल या कपड़े के जूते पहन सकते हो। इससे अहिंसा को कोई खतरा नहीं है। शायद इससे अहिंसा को और बल मिले। हवाई चप्पल पाँव की अपेक्षा अधिक नरम होती है। पाँव के नीचे आई चींटी मर सकती है, मगर नरम हवाई चप्पल से संभावना कम है। पद-यात्रा त्याग एवं तितिक्षा की प्रतीक है। भारतीय संत पैदल ही हजारों मील की यात्रा कर लेते हैं। पद-यात्रा का मुख्य उद्देश्य अहिंसा है। विज्ञान के यात्रासाधनों में अल्पतम हिंसा से हजारों मील के पत्थर पार किए जा सकते हैं। ऐसे यात्रा-साधनों का उपयोग न हो, जिसे जानवर खींचते हों, जिन रिक्शों को आदमी खींचते हों। डोली पर, ठेलागाड़ी पर बैठकर यात्रा करने की बजाय उस सरकारी रेल पर यात्रा करना बेहतर है, जो सार्वजनिक है। चाहे तुम बैठो या उससे दूर रहो, वह तो चलेगी ही। यह तो सरकारी व्यवस्था है। सबके लिए की गई व्यवस्था है। लकड़ियाँ जलाकर पानी गर्म करने की बजाय बिजली के हीटर में गर्म करना और पचास आदमियों की जगह क्रेन से गाडी खींचना जैसे बेहतर है. वैसे ही कई तथ्य ऐसे ही बेहतर हो सकते हैं। विज्ञान के उन आविष्कारों को स्वीकार करने के लिए हमें शांत दिमाग से सोचना चाहिए, जिनके कारण हिंसा कम हो सकती है, अहिंसा की अस्मिता बढ़ सकती है। अहिंसा बहत बड़ा धर्म है, हमें इसके प्रायोगिक रूपों को और विकसित करना चाहिए। परंपरा में भी सच्चाई हो सकती है, पर समय यदि सच्चाई के और बेहतर हस्ताक्षर करे, तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए, प्रबुद्ध और वैज्ञानिक लोगों का तो यही निवेदन है। विज्ञान भी दर्शन की ही एक कडी है। बाहर के विज्ञान की तरह भीतर भी विज्ञान है। जीवन का विज्ञान बैखरी और मध्यमा के उपरांत पश्यंति की हंस-दृष्टि दर्शाता है। नीर-क्षीर का विवेक पश्यंति से ही निष्पन्न होता है। द्रष्टा द्वारा जो आत्मसात् होता है, वह है ज्ञान और देखने की प्रक्रिया का नाम है – पश्यति। जहाँ यह कहा जाता है - 'मैं कहता आँखन की देखी, तू कहता कागद की लेखी', इन आँखों से देखने का मतलब इसी ‘पश्यंति' से है, दर्शन से है। दर्शन के मायने हैं द्रष्टा ने दृश्य से स्वयं को अलग देख लिया है, परिधियों से विरत होकर केंद्र के लिए अंतर्यात्रा शुरू Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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