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द्रष्टा भाव : अध्यात्म की आत्मा
बोलोगे, भीतर की ऊर्जा उतनी ही बाहर बिखरेगी । बोलो, मगर शब्द-संयम का अतिक्रमण करके नहीं। शब्द-संयम तो धर्म - तंत्र का महत्त्वपूर्ण अनुशासन है ।
दूसरा तल है मध्यमा - सोचने का। बोलना और सोचना, दोनों में दोस्ताना संबंध है। आदमी बोलता इसलिए है, क्योंकि वह सोचता है । सोच ही अगले कदम में बोल बन जाता है। सोच भी एक सत्य है, एक आलोक है । सोच यदि ध्यान में केंद्रीभूत हो जाए, तो सत्य की एक नई मुस्कान आविष्कार पाती है। किंतु हमारी सोच हमारे लिए आविष्कार के स्थान पर घुटन क्यों लगती है ? इसलिए कि हमने सोच को विकेंद्रित कर रखा है । हजार तरह की सोच हमारे मन में बनती - बिखरती है। जहाँ पल-पल में सोच धूप-छाँह खेलती है, वहाँ हम न तो पूरी तरह अंधकार में हैं और न पूरी तरह प्रकाश में । अधर में लटका कहलाएगा जीवन का अध्यात्म । अध्यात्म तो हमारी सोच का परिष्कार है, अस्थिर मन का केंद्रीकरण है । हम स्वयं को अपने मन के मेले से अलग ले चलें ताकि बच्चे की तरह हम दुनिया की भीड़ में भटक न सकें ।
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ध्यान का कार्य-क्षेत्र है मन को शांत करना । मन को शांत करने का मतलब है दुनिया भर के भीड़-भरे विचारों से स्वयं को मुक्त करना । जीवन के विज्ञान में मौन का प्रयोग इसीलिए सार्थक हुआ। मौन रखो होठों का भी, मन का भी । ध्यान का यह महत्त्वपूर्ण चरण है। मैं इसे ऊर्जा-समीकरण ध्यान कहूँगा। यदि इसे तुम प्रतिदिन करो, तो मानसिक तनाव तुम्हारी धमनियों में कभी भी संजीवित न हो पाएगा ।
शाम के वक्त चले जाओ घर की छत पर, बगान में, कमरे में या ऐसे स्थान पर जहाँ सिर्फ तुम ही रहो, घर-परिवार या भीड़ का कोलाहल न हो । आराम -कुर्सी पर जाकर बैठो, बड़े आराम से सहज शिथिल शरीर। आधे घंटे तक शांत मन बैठे रहो। न कुछ देखना है, न कुछ सोचना है। बस ऐसे रहो जैसे रात को सोते हो । रात को सोते समय शरीर सोता है, पर मन सपने के जाल बुनता है। यहाँ तुम्हें मन को सुलाना है होशपूर्वक रहकर । आधे घंटे की यह शांति भर देगी तुम्हें फूलों-सी खिलती ताजगी से । तुम स्वयं को तनाव - र -रहित, तरोताजा और स्वस्थ मन पाओगे।
यदि विचारों की उधेड़बुन उठने लगे, तो बगैर किसी दबाव के दोनों आँखों की ओर देखते रहो । साक्षी भाव से उसके द्रष्टा बनो । श्वास की गति शांत मंद हो । धीरे-धीरे मन की खट-पट शांत हो जाएगी।
यदि मन के कारण अधिक परेशान हो, तो एक और प्रक्रिया से गुजर सकते हो, और वह है प्रतिक्रिया - मुक्ति । अच्छे-बुरे जो भी कार्य हों, होने दें; स्वयं को उससे न जोड़ें। क्रिया चालू रहे, पर प्रतिक्रिया नहीं | मानसिक तनाव, आक्रोश और असंतुलन का मुख्य कारण प्रतिक्रिया है । यह संकल्प करना ही काफी है कि मैं किसी भी क्रिया पर अपनी आक्रोशपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करूँगा। मैं
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