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अन्तर के पट खोल
हिमाच्छादित गौरीशंकर से अवतरित होती है। जहाँ मन की किंचित् भी खटपट नहीं है, वहीं समाधि है। जहाँ कुछ है, वहाँ किसी-न-किसी रूप में चित्तवृत्ति ही है। निर्विकल्प/विचार-रहित, शांत-मौन दशा का नाम समाधि है।
इसलिए समाधि महाशून्य है, चित्त के संसार का समापन है। जहाँ चित्त का संसार भीतर की निगाहों से ओझल हो जाता है, वहीं चेतना जीवन के आकाश में अपने पर खोलती है। चित्त के संसार के पार है चेतना का विस्तार, चैतन्य-विहार। चित्त के पार होना चित्त की शुद्धावस्था की पहल है। यही तो वह स्थिति है जहाँ
आत्मज्ञान घटित होता है। आत्मज्ञान द्वार है परमात्मा का। आत्मज्ञान के पड़ाव पर परमात्मा साकार होते हैं; वह परमात्मा जो प्रत्येक का स्वभाव-सिद्ध अधिकार है। तब व्यक्ति 'वह' नहीं रह जाता, जो अभी तक रहा है। जो अभी है, वह तो खो जाता है। फिर तो 'वह' अवतरित होता है, जिसकी उसे तलाश और अभीप्सा रही। एक नई आभा प्रकट होती है, एक नई ऋतु जन्म लेती है, एक अस्तित्व आविष्कृत होता है, अमृत-वर्षा होती है। जीवन के डाल-डाल और पात-पात पर
गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहिर गंभीर।
चहुं दिसि दमकै दामिनी, भीगै दास कबीर। फिर तो कैवल्य/ब्रह्मज्ञान रोम-रोम से नि:सृत होने लगता है। सारा अस्तित्व अमृत बरसाने लगता है। फिर तुम एक न रहोगे, अनंत बन जाओगे। वाणी भी अनंत हो जाएगी, हाथ भी अनंत हो जाएँगे। करुणा और ध्यान भी अनंत हो जाएँगे। जीवन में अंतर का प्रकाश होगा अंतहीन - अनंत!
महामौन में ही महाअमृत की वर्षा होती है। यात्रा शुरू होगी वृत्ति-बोध से, निवृत्ति से।
हम स्वयं से रूबरू हों, थिरतापूर्वक स्वयं को समझें। अपने वृत्ति-विकारों को समझें और पूर्वानुभूतियों का वृत्ति से ऊपर उठने में उपयोग करें। कल के कषायविकारों से कुछ न मिला, तब आज के कषाय-विकारों से क्या मिलेगा! जब कल के भोग से तृप्त होकर भी आज अतृप्त रहे, तो आज के भोग से कौन तृप्त हो जाओगो! चित्त का हर भोग एक मृग-मरीचिका है। बोध ज्यों-ज्यों गहरा होगा, वृत्तियों की उठापटक त्यों-त्यों शांत होगी। हम बोध का उपयोग करें। बोध ही आधार है जीवन-मुक्ति का, आत्म-शांति और आत्म-शुद्धि का। 'बिना बोध सब सून' – बिना बोध के सब शून्य है। बोध का दीप हाथ में थामें। बोध ही आधार है-- प्रथम भी, अंतिम भी।
कहते हैं : कुछ संत अपने भिक्षा-पात्रों पर बड़ी कारीगरी से रंग-रोगन कर रहे
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