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बोध : वृत्ति और प्रवृत्ति का थे। वे उन पर नाना लुभावने बेल-बूटे निकालने लगे। इस कार्य में वे तीन दिन से इतने तत्पर थे कि ध्यान और संबोधि-भावना का विस्मरण ही कर बैठे; मानो उनके पास समय ही न हो।
अर्हत् को इसकी जानकारी मिली। वे द्रवित हो उठे। बोले, मन की ग्रंथि भी कितनी विचित्र है ! किसलिए आए और क्या करने लगे?
___ सभी चौंके । अर्हत् ने कहा, स्वयं के लक्ष्य को बिसरा कर आस्रवों को नहीं रोका जा सकता।
सबने अर्हत् की आँखों को पढ़ा। चेतना से आँसू ढुलक पड़े। बह गया था जिससे उन पात्रों का सब रंग, चेतना के संग। सभी ध्यान में उतरे और फिर लगे रँगने अंतर्मन को, भीतर के मंदिर को। वृत्ति से उपरत हुए, तो सहज प्रवृत्ति के स्वामी हो गए। परावृत्ति और संबोधि की उज्ज्वलता को उन्होंने आत्मसात् कर लिया।
हम अपने हाथ से बोध का दीप थामें और उतरें अंतर में अंतर्बोध और अंतर्योग के लिए। बोधपूर्वक वृत्ति/विकृति को समझें और पार लगें। मार्ग उसी का है, जो चले। मंजिल उसकी है, जो पहुँचे। शेष तो जैसी जिसकी नियति !
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