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द्रष्टा-भाव : अध्यात्म की आत्मा
अंधा वह नहीं है, जिसके पास आँखें नहीं हैं; अंधा वह है, जिसके पास अंतर्दृष्टि नहीं है।
कछ दिन पहले की बात है। मैं किसी मकान की छत पर बैठा प्रकृति के
रहस्यमय स्वरूप को निहार रहा था। कभी मैं टिमटिमाते तारों को निहारता, तो कभी अर्द्ध चंद्राकार को। ऐसा हुआ करता है। मैं कभी घंटों फूलों को निहारा करता हूँ, तो कभी सरोवर की लहरों को। कभी उड़ती तितलियों और पंछियों को निहारा करता हूँ, तो कभी सड़क पर से गुजरते यातायात और यायावरों को। यह सब तो मानो मेरा नित्यक्रम जैसा रहा है।
जब मैं छत पर बैठा आसमान को देख रहा था, तभी किसी की आहट हई। आगंतुक करीबी रहा। उसने नम्रता से पूछा, इतनी रात गए क्या कर रहे हैं ? मैंने प्यार से उसे देखा और संकेत में इतना ही कहा, बस, थोड़ा-बहुत पढ़ रहा था। मेरी बात सुनकर वे महानुभाव चौंके। शायद इसलिए कि पढ़ने के लिए मेरे हाथ में कोई किताब नहीं थी। यह तो उन्हें बाद में समझ आया कि मैं कैसी और कौन-सी किताबें पढ़ा करता हूँ।
मेरे जीवन का यह सच है कि मैं बहत कम किताबें पढता है। कभी-कभार कोई बहुत बेहतरीन किताब हाथ लग जाए, तो ही मैं पढ़ता-बाँचता हूँ; बाकी मेरी किताब हर समय मेरे सामने रहती है सदा खुली, सदा रहस्यपूर्ण।
संसार, नेरी किताब है। मैं इसे पढ़ा करता हूँ। जीवन मेरे लिए परमात्मा का मंदिर है और जगत् मेरे लिए शास्त्र। मैं मंदिरों में जाया करता हूँ, पर मुझे जीवन सदा मंदिर के रूप में ही दिखाई दिया है। जो आचरण मैं किसी मंदिर के प्रति करता हूँ, जीवन के प्रति भी काफी-कुछ वैसा ही बरताव होता है। मैं उस जीवन में विश्वास
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