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द्रष्टा-भाव : अध्यात्म की आत्मा
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स्वयं को धिक्कारती रही और भगवान् से प्रार्थना करती रही कि प्रभो! यह दुष्कृत्य तुम और किसी से मत करवाना। काश, मैं भी संन्यस्त हो पाती, मीरा की तरह तुममें समा पाती।
धर्मराज का यह सत्य-दर्शन हमारे लिए भी है। कहीं ऐसा न हो कि हमें मठाधीश का स्थान मिले। जीवन के वास्तविक फूल अंतर्धरातल पर खिलते हैं। जो अंतर्जीवन को निर्मल करने के लिए, उसके निर्माण और संस्कार के लिए उत्सुक है, वही वास्तव में आस्तिक है। अस्तित्व का स्वीकार ही आस्तिकता है।
आस्तिक के मायने हैं श्रद्धा से भरा मनुष्य और नास्तिक का अर्थ है संदेह से घिरा मनुष्य। अस्तित्व की सर्वोच्चता को श्रद्धा से तो पाया ही जाता है, संदेह से भी पाया जा सकता है। बशर्ते संदेह भी समग्र हो, सम्यक् हो, जिसके निराकरण के लिए जीवन को दाँव पर लगा सकें।
__ संदेह को शीर्षासन कराने का एकमात्र उपाय है सम्यक् दर्शन। सम्यक् दर्शन ही संदेह-निवारण का आधार-सूत्र है। दर्शन से ही समझे जा सकते हैं संसार के सम्मोहन । दर्शन से ही जाने जा सकते हैं सत्य के प्रकाश-स्रोत। दर्शन ही वह देहरी का दीप है, जिससे निहारा जा सकता है बाहर को भी और भीतर को भी।
__ स्वयं की वास्तविकता और स्वयं के अस्तित्व से मिलना योग है और द्रष्टाभाव योग का प्रवेश-द्वार है। द्रष्टा-भाव का अर्थ है अंतर्दृष्टिपूर्वक देखना। तटस्थ भाव से देखना। देखने का अर्थ है, केवल देखना। कोई चुनाव नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं। जैसे सागर के किनारे खड़ा पथिक जल-तरंगों को सहज तटस्थ भाव से निहारता है, न रागजनित संस्कार और न द्वेषजनित भाव। ऐसे ही निहारना होता है जगत् के धर्मों को, देह और चित्त के धर्मों को। जहाँ ग्रहण नहीं होता, केवल बोधपूर्वक देखना भर होता है, उसी का नाम है सम्यक् दर्शन और यही है द्रष्टा-भाव। ध्यान सम्यक् दर्शन का मार्ग है। धैर्यपूर्वक, थिरता से अंत:बाह्य स्थिति का किया गया सम्यक् दर्शन ही निवृत्ति और मुक्ति का स्वत:सिद्ध मार्ग है।
कहते हैं : बालशेम नाम के संत प्रतिदिन मध्य रात्रि के समय नदी से वापस लौटा करते थे। वे रात को नदी के किनारे जाकर बैठते और परिपूर्ण निस्तब्धताओं में द्रष्टा को देखते रहते। आँख खुली तो नदी की लहरों को देखने का आनन्द लेते, लहरों के साथ एक लय हो जाते, आँख बंद होती तो खुद को देखने का, खुद की विपश्यना का आनंद लेते।
एक दिन, बीच में पड़ने वाले किसी महल के पहरेदार ने संत को रोका और कहा, महानुभाव! मुझे क्षमा करें आपको टोकने के लिए, लेकिन मेरी जिज्ञासा है कि आप रोज नदी पर क्यों जाते हैं ? वहाँ क्या करते हैं ? मैंने अनेक दफा आपका पीछा
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