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किया, लेकिन मैं निष्कर्ष नहीं निकाल पाया।
संत ने कहा, मैंने भी तुम्हारी आहट सुनी है । तुम क्या करते हो ? पहरेदार बोला, मैं एक साधारण पहरेदार हूँ, महल का पहरा लगाता हूँ।
संत हँसे और कहा, हे प्रभु! तुमने तो कुंजी दे दी। मैं भी तो अब तक यही करता आ रहा हूँ।
पहरेदार ने कहा, मैं समझा नहीं । आप तो नदी की रेत पर बैठे रहते हैं, आप कहाँ किस महल की पहरेदारी करते हैं ?
अन्तर के पट खोल
संत ने कहा, तुम्हारी पहरेदारी और मेरी पहरेदारी में थोड़ा-सा फर्क है। तुम बाहर के महल की पहरेदारी करते हो और मैं भीतर के महल की पहरेदारी करता हूँ । मैं कौन हूँ? - मेरे भीतर यह द्रष्टा कौन है - यह जानना और देखना ही मेरी साधना है।
पहरेदारों ने कहा - मैं जो पहरा लगाता हूँ, उसके लिए मुझे धन मिलता है, पर आपके पहरे से आपको क्या मिलता है ?
संत इस बार ठहाका लगा बैठता है । कहता है- मुझे इससे जिस धन्मता का आनन्द मिलता है वह संसार के बड़े-से-बड़े धन से भी ज़्यादा मूल्यवान है । मेरी आनंददशा का एक क्षण और दुनियाभर के सारे ख़ज़ाने - फिर भी भीतर के आनंद
क्षण अधिक महान है ।
पहरेदार ने कहा – यदि भीतर का अनुभव इतना सुंदर है तो मुझे भी दीक्षित करे । संत ने कहा- तुम मुझसे अधिक सुन्दर तरीके से स्वयं की साधना कर सकते हो क्योंकि पहरा लगाना तुम्हें बखूबी आता है। कहा, फ़र्क़ इतना ही है कि बाहर की बजाय भीतर का दर्शन करना है, भीतर का पहरा लगाना है। आओ, मैं तुम्हें दीक्षित करता हूँ। और यह कहते हुए संत उसे नदी की ओर ले निकल पड़े।
मेरे देखे, द्रष्टाभाव ही अध्यात्म की बुनियाद है, यही आत्म-भावना का जनक है, यही भेद-विज्ञान का सूत्रधार है । द्रष्टा तो 'जो होता है', उसे देखता है। वह स्वागत उसी का करता है, जो उसे सत्य के और समीप ले जाए । द्रष्टा जीता है अचुनाव में। चयन मन की राजनीति है । जो द्रष्टा है वह चयन और चुनाव की राजनीति नहीं खेलता । वह चयन को भी मन की ही खटपट मानता है। आखिर दो विकल्पों में से किसी एक विकल्प को चुनना किसी नए विकल्प के निर्माण का मार्ग है। मन तो दर्जी की दुकान है, जहाँ विकल्पों की कतरन हर जगह दबी - बिखरी पड़ी
है।
द्रष्टा को होना होता है निर्विकल्प, निःस्वप्न । शुरुआत में तो वह विचारविकल्पों के सड़े-गले पत्तों को अलग करता है, परंतु धीरे-धीरे उसकी यात्रा बीज
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