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बोध : वृत्ति और प्रवृत्ति का है, वरना संन्यास संसार की उस कमी की ही आपूर्ति करने में खर्च होगा, जिसे तुम संसार में रहकर न पा सके- यश, प्रतिष्ठा, नामगिरी, ऐश, आराम। संन्यास तो सात जन्मों के पुण्य से ही उदय में आता है, पर उसकी सार्थकता तभी है जब वह व्यक्ति की निर्वृत्ति का आधार बने। व्यक्ति वृत्ति, विकल्प, स्मृति, कल्पनाओं के जाल से बाहर आए।
मनुष्य की यह खोपड़ी बहुत छोटी-सी है। पर इसमें बहुत बड़ा संसार और बहुत बड़ा बाजार बसा है। विचारों की न जाने कितनी दुकानें इसमें खुली हुई हैं। हर दुकान पर नया माल है। यदि इस बाजार को बारीकी से निहारें, तो चकरा उठेगे। दुकानों को ध्यानपूर्वक देखो, नकामी दुकानों के सटर गिरा दो। दुकानों की संख्या कम हो जाएगी। मन की दुकानदारी और संसारबाजी से स्वयं को बाहर लाओ। देहपिंड और मन की विपश्यना करो। मन के साक्षी भर बनो। मन के पास संस्कारों का, वृत्तियों का इतना प्रवाह है कि कब कैसी प्रवृत्ति करवा दे, पता नहीं। कहते हैं
एक ही उल्लू काफी है, बरबाद गुलिस्ताँ करने को। ___ हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे-गुलिस्ताँ क्या होगा?
खोपड़ी हमने इतनी भर रखी है कि एक विचार को दूसरे विचार से मिलने की फुरसत नहीं। सारे विचार एक-दूसरे के विरोधी; विचारों की भीड़ इस कदर कि साँस लेना भी मुश्किल; जरा मेहरबानी कर पहले शून्य और शांत करो स्वयं को, वरना उमस और घुटन में जीना मुश्किल हो जाएगा। पता है हार्ट अटैक' क्यों होता है ? इसी मानसिक घुटन के कारण, परस्पर विरोधी विचारों के बोझ के कारण। मन की उधेड़बुन ही तनाव का कारण बनती है और तनाव ही 'हार्ट अटैक' और 'ब्रेन हेमरेज' का कारण बनता है।
बोझ हलका करो। यदि स्थान, परिवेश या और कुछ बदलना उपयोगी लगे, तो कोई हर्जा नहीं, पर भीतर का भार नीचे गिर जाना चाहिए। चित्त निर्भार हो। चित्त से बोझ का हटना ही शांति और मुक्ति है। मुक्ति ही जीवन की शक्ति है।
वृत्तियों से मुक्त होने के लिए वनवास आवश्यक नहीं है, वृत्तियों की निरर्थकता का बोध जरूरी है। संन्यास लो, पर संन्यास की पूर्व भूमिका तो पहले तैयार कर लो। महावीर ने गहस्थ-वर्ग में एक स्नातक श्रेणी बनाई 'श्रावक' की। घर में बच्चा पैदा हआ कि हम कहने लग गए - एक श्रावक' बढ़ा। श्रावकोपीवर बोध के बाद ही घटित होता है। लोग जलसा तो करते हैं श्रमणत्व का, और अभी तक 'श्रावक' का पता ही नहीं। श्रमण बनने से पहले सच्चे श्रावक बनें। जो व्यक्ति अपने जीवन में सच्चा श्रावक नहीं बन पाता, वह सच्चा श्रमण भी नहीं बन सकता। श्रावक होना
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