Book Title: Antar ke Pat Khol
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 23
________________ 22 अन्तर के पट खोल श्रमण होने की अनिवार्य भूमिका है। मात्र जनेऊ पहनने से ब्राह्मणत्व आत्मसात् नहीं हो जाता। पहले स्रोतापन्न बनें, फिर कहीं बुद्धत्व की पहल प्रारंभ होगी। कहीं ऐसा न हो कि संन्यास लेने के बाद संसार के सपने देखते रहें। यदि ऐसा हुआ तो वह संन्यास नहीं, संसार ही है। संन्यास में संसार की आँख-मिचौली आत्मप्रवंचना है। यदि संसारी संन्यासी के ख्वाब सजाए, तो उसे बधाई है, क्योंकि व्यक्ति ऊँचे स्तर को निहार रहा है। पर उसे क्या कहेंगे, जो साधना के रास्ते पर आरूढ़ होने के बाद आगे बढ़ने की बजाय पीछे लौटना चाहता है, तराई में! यह साधु की, साधक की गिरावट है। जीवन का स्वरूप बड़ा विचित्र है, बड़ा गहरा है। व्यक्ति बाहर से संन्यासी होकर भी भीतर से संसारी हो सकता है और बाहर से संसारी दिखता हुआ भी अंतरंग में संन्यास को पल्लवित कर सकता है। श्रीमद् राजचन्द्र ऐसे ही अमृत-पुरुष हुए। भीतर के संन्यासी, भीतर के मुनि। ऐसा कोई साधक बने, तो सार्थकता है। वरना जब जवां थे तो न की कदरे जवानी की। अब हुए पीर तो याद अपना शबाब आता है। कहीं ऐसा न हो कि सब छोड़-छाड़कर भी उसी को याद करते रहो, जो छोड़ा है। किसी प्रवृत्ति को छोड़ना कठिन है, पर उतना दुष्कर नहीं है, जितना छोड़े हुए की पकड़ को छोड़ना। लोग विवाह-मंडप में भी धूमधाम से प्रवेश करते हैं, तो वैराग्यमंडप में भी बैंड-बाजे के साथ। भला, विरक्ति के बाद वर्षीदान कैसा ! ‘पशुओं की चीत्कार सुनी, सृष्टि ने आह्वान किया, जीवन में क्रांति घट गई और अरिष्टनेमि का रथ गिरनार (संन्यास) की राहों पर चल पड़ा'। लेकिन तुम्हारे दुराग्रह ऐसे कि हम ऐसे सहज-सरल सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते और किसी परंपरा-विशेष को निभाने के लिए सहज-सरल स्वरूप पर भी लीपापोती कर बैठते हैं। ____ ध्यान रखो, दीक्षा जीवन-रूपांतरण की दास्तान है, शोभा-यात्रा निकालने का महोत्सव नहीं। लोग संन्यस्त होकर भी पूर्व जीवन का दंभ भरते हैं। जो व्यक्ति साधुता के परिवेश में जीते हुए यह कहता है कि मैंने घरबार छोड़ा, लाखों-करोड़ों की जायदाद छोड़ी, मैंने यह छोड़ा, वह छोड़ा, तो वह त्याग का भी उपभोग कर रहा है। क्या तुम इसे छोड़ना कहोगे? छोड़ा कहाँ ! अभी तक तो पकड़े बैठे हो। त्या की याद को पकड़े बैठे हो। मूल्य वस्तु के संग्रह और त्याग का नहीं है, उसकी पकड़ का है। एक सम्राट भी अपरिग्रही हो सकता है और एक भिक्षुक भी परिग्रही। 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' परिग्रह का संबंध मूर्छा से है। मूर्छा जिसके पास जितनी अधिक होगी, वह उतना ही बड़ा परिग्रही होगा। मूर्छा इंसान को भिखारी बनाती है। भिखारी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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