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बोध : वृत्ति और प्रवृत्ति का
रह पाता। आँख तो चित्त की खिड़की है। आँख बंद कर लेने से बाहर का संसार उसके लिए अदृश्य-सा हो जाएगा, किंतु चित्त के धरातल पर भीतर का संसार तो तब भी रहेगा। हाँ, यदि चित्त का रूपांतरण हो जाए, उसका तख्ता उलट जाए, तो आँखों के खुले या बंद रहने का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता । भला कमल की पंखुरियों के खुल जाने के बाद कीचड़ से उसका क्या संबंध ?
चित्त का संसार जन्म-जन्म के संसार और घटनाक्रमों का कारवां है। आँखों में प्रतिबिंबित होने वाले संसार को मैं प्रवृत्ति कहूँगा और चित्त के संसार को वृत्ति । आध्यात्मिक परिणामों के लिए प्रवृत्ति की बजाय वृत्ति अधिक प्रभावी है। अच्छी वृत्ति पुण्य कहलाती है और बुरी वृत्ति पाप । प्रवृत्ति कृत्य है । प्रवृत्ति बुरी होते हुए भी वृत्ति अच्छी हो सकती है, पर प्रवृत्ति अच्छी होते हुए भी वृत्ति बुरी हो सकती है। शत्रु द्वारा पिलाए गए जहर से यदि किसी की जान में जान आ जाए और चिकित्सक द्वारा शल्य-चिकित्सा के वक्त किसी की जान निकल जाए, तो दोनों की मनोदशा का ही मूल्यांकन करना होगा। शत्रु मारना चाहता है, पर वह कहेगा, अरे ! यह तो बच गया। चिकित्सक बचाना चाहता है, पर वह कहेगा, ओह, बेचारा मर गया ।
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मुक्ति का माधुर्य वृत्ति और प्रवृत्ति, दोनों के पार है। दुष्प्रवृत्ति अपराध है, पर दुष्वृत्ति पाप है। दुष्वृत्ति का परिणाम स्वयंभोग्य है, किंतु दुष्प्रवृत्ति के लिए न्यायालय की कानून-संहिता दंड देती है । चपत चाहे मित्र की हो या शत्रु की, वह चपत तो कहलाएगी ही। मुक्ति वृत्ति और प्रवृत्ति यानी पाप और पुण्य दोनों के पार है।
करें।
बड़ी प्रचलित कहावत है - 'मुख में राम बगल में छुरी' यानी प्रवृत्ति अच्छी, किंतु वृत्ति बुरी । यदि वृत्ति बुरी है, तो प्रवृत्ति अच्छी होते हुए भी बुरी ही होगी । इसलिए प्रवृत्ति की बुराई को हटाने से पहले वृत्ति में रहने वाली बुराई को दूर प्रवृत्ति में लाया जाने वाला परिवर्तन तो मात्र बैल का खूँटे बदलना है। वह जीवनरूपांतरण का आधार नहीं है। जीवन में रूपांतरण तो वृत्तियों के आमूलचूल परिवर्तन होने की घटना है। मेरा जोर वृत्तियों के प्रति जागने के लिए है। मैं निर्वृत्ति में विश्वास रखता हूँ, निर्प्रवृत्ति में नहीं । प्रवृत्ति घातक नहीं होती । प्रवृत्ति यानी कर्म । गीता में कृष्ण कर्मयोग पर बल देते हैं । वे यदि निषेध करते हैं तो कर्म-फल की आकांक्षा का निषेध करते हैं क्योंकि कर्मफल की आकांक्षा वास्तव में मन की वृत्ति है। पतंजलि का प्रसिद्ध सूत्र है - योग : चित्तवृत्ति निरोधः ।
चित्त-वृत्तियों का शांत होना ही योग है। योग वह निरोधक है, जो वृत्तियों के जन्म पर अवरोध खड़ा कर देता है । चित्त की वृत्तियाँ चित्त का व्यापार हैं। जब तक मनुष्य वृत्तिप्रधान रहेगा, मानसिक व्यापार उसके अस्तित्व के हर पहलू से जुड़ा
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