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प्रथम अधिकार इस प्रकार शुभचन्द्र आचार्य देव ने सर्व प्रथम ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण निमित्त सिद्ध प्रभु को नमस्कार किया है।
निमित्त-इस ग्रन्थ का मुख्य निमित्त है भव्य जीवों का कल्याण तथा अपने परिणामों की विशुद्धि । भव्य जीवों के कल्याण से प्रेरित होकर वा अपने परिणामों की विशुद्धि के लिए आचार्य देव ने इस ग्रन्थ की रचना की है।
हेतु-हेतु का दूसरा नाम है फल । वह फल दो प्रकार का है-प्रत्यक्ष और परोक्ष।
प्रत्यक्ष फल के भी दो भेद हैं--साक्षात् और परम्परा। इस ग्रन्थ के पढ़ने का साक्षात् फल है अज्ञान नाश, सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति और असंख्यातगुणी कर्मों को निर्जरा।
परम्परा प्रत्यक्ष फल है, शिष्य-प्रति शिष्यों के द्वारा पूजा, प्रशंसा, स्तुति आदि की प्राप्ति तथा शिष्यों की प्राप्ति ।
परोक्ष फल भी दो प्रकार का है-एक सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति और दूसरा फल है मोक्ष का लाभ ।
परिमाण-परिमाण दो प्रकार का है ग्रन्थ परिमाण और अर्थ परिमाण । ग्रन्थ परिमाण है-इस ग्रन्थ की गाथा संख्या २४८ तथा अर्थ परिमाण तो इस ग्रन्थ का अनन्त वा असीम है जिसका कथन करने के लिए छद्मस्थ की जिह्वा समर्थ नहीं है। अथवा इसका प्रतिपाद्य विषय है ग्यारह अंग सहित चौदह पूर्व तथा चौदह प्रकीर्णक है । ___ नाम-नाम भी दो प्रकार के होते हैं अन्वयार्थ और इच्छित । जैसा नाम हो वैसा ही उस शब्द का अर्थ हो वह अन्वयार्थक या सार्थक नाम है जैसे पद्मपुराण-पद्म अर्थात् बलभद्र ( राम ) उनका पुराण (चरित्र) जिस ग्रन्थ में हो वह ग्रन्थ पद्मपुराण कहलाता है। इस ग्रन्थ का नाम है 'अंगपण्णत्ति' (अंग प्रज्ञप्ति) अंगों का वर्णन होने से यह सार्थक नाम है।
कर्ता-'वोच्छे' क्रिया का कर्ता प्रथम पुरुष का एकवचन है। यह कर्ता ( शुभचन्द्र ) का द्योतक है। तथा गाथा में 'सुइचंद' इ शब्द से भी ग्रन्थ कर्ता का नाम सिद्ध होता है जैसे-गोमट्टसार में ‘णेमिचंद' इस शब्द से नेमिचन्द्र ग्रन्थ कर्ता का नाम सूचित होता है। ___ कर्ता का नामोल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि कर्ता की प्रमाणता से ही उसके वचनों में प्रमाणता आती है।