Book Title: Angpanntti
Author(s): Shubhachandra Acharya, Suparshvamati Mataji
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 232
________________ तृतीय अधिकार २०७ तीन सौ, चार सौ, पांच सौ आदि श्वासोच्छ्वास में जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह परिमित एवं निश्चित कालीन कायोत्सर्ग है। जैसे-मलमूत्र करके आने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग किया जाता है । आहार करने जाते समय प्रत्याख्यान के निष्ठापन में और आहार करके आने के बाद प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन क्रिया में सत्ताईस श्वासोच्छवास में कायोत्सर्ग किया जाता है। इसी प्रकार धीर वीर महामुनि कर्मों की निर्जरा करने के लिए ग्रामान्तर से आने के बाद देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक, उत्तमार्थ प्रतिक्रमणों में नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं में किया गया कायोत्सर्ग परिमित कालीन है और बाहुबली आदि के समान ध्यान के लिए महीना, दो महीना, उत्कृष्ट बारह महीना आदि पर्यन्त किया गया कायोत्सर्ग अनिश्चित या अपरिमित कालीन है अथवा एक समय में अधिक आवली से लेकर एक समय कम मुहूर्त अन्तर्मुहूत है यह कायोत्सर्ग का जघन्य काल है और उत्कृष्ट काल एक वर्ष का है। प्रत्येक नित्य-नैमित्तिक काल में किये जाने वाले कायोत्सर्ग बत्तीस दोष टालकर करना चाहिए । कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष निम्न प्रकार है १-जैसे घोड़ा अपना एक पाँव अकड़ लँगड़ा करके खड़ा हो जाता है वैसे खड़ा होना घोटक पाद दोष है । २-लता के समान इधर-उधर हिलते हुए कायोत्सर्ग करना लता वक्र दोष है। ३-स्तम्भ के समान अकड़ कर, खड़ा होकर वा स्तम्भ के समान शून्य हृदय होकर कायोत्सर्ग करना स्तम्भ स्थिति दोष है। ४-खम्बे का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना वा भित्ति का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना कुण्डयाश्रित दोष है। ५-मस्तक ऊपर करके, किसी पदार्थ का आश्रय देकर खड़ा रहना मालिकोद्वहन दोष है। ६-अधर ओष्ठ का लम्बा करके वा नाभि से ऊर्ध्व भाग को लम्बा करके कायोत्सर्ग करना लम्बोत्तर दोष है। ७-स्तन पर दृष्टि करके खड़ा होना स्तन दृष्टि दोष है। ८-कौवे के समान तिरछे देखते हुए कायोत्सर्ग करना काकावलोकन दोष है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270