Book Title: Angpanntti
Author(s): Shubhachandra Acharya, Suparshvamati Mataji
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 261
________________ २३६ अंगपण्णत्ति आरण, अच्युत में पचपन पल्य की आयु होती है। मध्यम आयु के अनेक विकल्प हैं वह अन्य ग्रन्थों से जानना चाहिये । इस प्रकार चारों काय के देवों का निवास, क्षेत्र, विन्यास, भेद, नाम, सीमा, संख्या, इन्द्रविभूति, आयु, उत्पत्ति वा मरण का अन्त आहार, उच्छ्वास, उत्सेध, देवलोक सम्बन्धी आयु के बन्धक, भाव, लौकान्तिक देवों का स्वरूप, गुणस्थानादिक का स्वरूप, दर्शन ग्रहण के विविध कारण, आगमन, अवधिज्ञान, देवों की संख्या, शक्ति और योनि आदि का विस्तार रूप कथन जिसमें पाया जाता है, वह पुण्डरीक नामक प्रकीर्णक है। शुभचन्द्र आचार्य ने भक्तिपूर्वक पुण्डरीक प्रकीर्णं को नमस्कार किया है। ॥ इस प्रकार पुण्डरीक का कथन समाप्त हुआ ।। इस ग्रन्थ में महापुण्डरीक प्रकीर्णक का कथन नहीं है नीचे टिप्पणी में लिखा है “महापुण्डरीक प्रकीर्णक प्राप्य नहीं है या हमारी दृष्टिदोष से नष्ट हो गया है।" - गोम्मटसार जीव प्रबोधिनी टीका में लिखा है जो इन्द्र और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति में कारण स्वरूप तपो विशेष का कथन करता है वह महापुण्डरीक है। णीसेहियं हि सत्थं पमाददोसस्स दूरपरिहरणं । पायच्छित्तविहाणं कहेदि कालादिभावेण ॥ ३४ ॥ निषेधिका हि शास्त्रं प्रमाददोषस्य दूरपरिहरणं । प्रायश्चित्तविधानं कथयति कालादिभावेन ॥ आलोयण पडिकमणं उभयं च विवेयमेव वोसग्गं । तव छेयं परिहारो उवठावण मूलमिदि णेया ॥ ३५ ॥ आलोचनं प्रतिक्रमणं उभयं च विवेक एव व्युत्सर्गः । तपश्छेदः परिहारः उपस्थापना मूलमिति ज्ञेयं ॥ प्रमाद जनित दोषों का परिहार करने के लिए निषेधिका शास्त्र का कथन है। यह कालादि भाव से प्रायश्चित विधान का कथन करता है ।। ३४ ॥ विशेष-प्रमाद अथवा अज्ञान से लगे हुए दोषों की शुद्धि करना प्राय

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