Book Title: Angpanntti
Author(s): Shubhachandra Acharya, Suparshvamati Mataji
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 262
________________ तृतीय अधिकार २३७ श्चित्त है । उत्कृष्ट चारित्र के धारक मुनि को 'प्राय' और मन को चित्त कहते हैं। अतः मन को शुद्धि करने वाले कर्म को प्रायश्चित्त कहते हैं। ___आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना मूल ये प्रायश्चित्त के नव भेद हैं तथा मूल के स्थान में श्रद्धान मिलाने से प्रायश्चित्त के दश भेद कहे हैं ।।३५।। एकान्त में विराजमान, प्रसन्नचित्त से गुरु के समक्ष देश काल को जानने वाले शिष्य के द्वारा सविनय दश दोष रहित आत्म (अपने) दोषों के निवेदन करने को आलोचना कहते हैं । __ मेरा दुष्कृत मिथ्या हो, इस प्रकार से कर्मों का प्रतिकार करने वाले वचनों का उच्चारण करना प्रतिक्रमण है। कर्मवश या प्रमाद से लगे हुए दोष हे प्रभो ! तेरे प्रसाद से मिथ्या होवें। इस प्रकार सरल हृदय से वचनों का उच्चारण करना प्रतिक्रमण है। दोनों प्रकार के दोषों का संसर्ग होने पर उनका शोधन करना उभय नाम प्रायश्चित्त है। कुछ कर्म आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाते हैं और कुछ कर्म प्रतिक्रमण से शुद्ध होते हैं और कुछ कर्म आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों से शुद्ध होते हैं, अतः उभय है । खोटे स्वप्न संक्लेश आदि से होने वाले दोषों का निवारण करने के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों किए जाते हैं। संसक्त अन्नादिक में दोषों को दूर करने में असमर्थ साधु जो संसक्त अन्नपान के उपकरण आदि को अलग कर देता है उसको विवेक प्रायश्चित्त कहते हैं अथवा जिस वस्तु के न खाने का नियम है, वह वस्तु भाजन में वा मुख में आने पर अथवा जिन वस्तुआ के ग्रहण करने में कषायादि उत्पन्न होते हैं उन वस्तुओं का त्याग कर देता विवेक नाम का प्रायश्चित्त है। काल का नियम करके कायोत्सर्ग आदि व्युत्सर्ग है । मल-मत्र के त्याग आदि में अतीचार लगाने पर प्रशस्त ध्यान का अवलम्बन लेकर मुहूर्तकाल पर्यन्त कायोत्सर्ग पूर्वक शरीर से ममत्व त्याग कर खड़े रहना व्युत्सर्ग नामक तप है। शास्त्र विहित आचरण में दोष लग जाने पर अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंस्थान आदि का दण्ड देना तप नाम का प्रायश्चित्त है। चिरकाल से दीक्षित साधु की अमुक दिन, पक्ष, माह आदि की दीक्षा छेद करना छेद प्रायश्चित्त है।

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