Book Title: Angpanntti
Author(s): Shubhachandra Acharya, Suparshvamati Mataji
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 265
________________ १४० अंगपण्णत्ति इस प्रकार दश प्रकार के प्रायश्चित्त और दश प्रकार के आलोचना के दोषों का निषेधिका (निसितिका ) में विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। अर्थात् प्रायश्चित्त को विधि का कथन जिसमें है वह निषेधिका प्रकीर्णक है।॥ ३८ ॥ ॥ इस प्रकार निषेधिका प्रकीर्णक समाप्त हुआ ।। एवं पइण्णयाणि च चोद्दस पडिदाणि एत्थ संखेवा । सद्दहदि जो वि जीवो सो पावइ परमणिव्वाणं ॥ ३९॥ एवं प्रकीर्णकानि च चतुर्दश प्रतीतानि अत्र संक्षेपात्। श्रद्दधाति योपि जीवः स प्राप्नोति परमनिर्वाणं ॥ एवं चोद्दसपइण्णया-एवं चतुर्दशप्रकीर्णकानि। इस प्रकार इस ग्रन्थ में संक्षेप में चौदह प्रकीर्णकों का कथन किया है। जो भव्य जीव इस अंगपण्णत्ति में चौदह पूर्व, बारह अंग, पाँच परिकर्म, प्रथमानुयोग, सूत्र, चूलिका और चौदह प्रकीर्ण का श्रद्धान करता है, प्रतीति करता है वह निर्वाण सुख को प्राप्त करता है ।। ३९ ।। ॥ इस प्रकार चौदह प्रकीर्णक समाप्त हुए। सुदणाणं केवलमवि दोण्णि वि सरिसाणि होति बोहादो। पच्चक्खं केवलमवि सुदं परोक्खं सया जाणे ॥४०॥ श्रुतज्ञानं केवलमपि द्वे अपि सदृशे भवता बोधतः। प्रत्यक्षं केवलमपि श्रुतं परोक्षं सदा जानीहि ॥ ज्ञान की अपेक्षा केवलज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सदृश ( समान ) हैं। क्योंकि दोनों ही ज्ञान सर्व तत्त्वों के प्रकाशक हैं। इन दोनों में केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद है । अर्थात् केवलज्ञान जिन पदार्थों को साक्षात् जानकर भव्यजीवों के लिए प्रतिपादन किया है उन सर्व पदाथों को श्रुतकेवली आगम के द्वारा सर्व पदार्थों को जानते हैं । अतः इन दोनों में प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद जानना चाहिए ।। ४० ॥ इस प्रकार वृषभसेन गणधर के प्रश्नानुसार आदिनाथ भगवान् ने श्रुतज्ञान ( बारह अंग ) का उपदेश दिया था। उसी प्रकार शेष तेईस तीर्थंकरों ने अपने-अपने गणधरों के प्रश्नानुसार श्रुत का कथन किया था। वह श्रुत परम्परा अविच्छिन्न रूप से इस प्रकार चली आ रही है। इदि उसहेण वि भणियं पण्हादो उसहसेणजोइस्स । सेसावि जिणवरिंदा सणि पडि तह समक्खंति ॥४१॥

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