________________
अंगपण्णत्ति
श्री विजयकीर्ति के पट्टपर उनके चरणों को सेवन में आसक्त तथा उभय (संस्कृत - प्राकृत) भाषा का ज्ञाता त्रैविद्य नामक आचार्य आसीन हुए थे । विद्य के शिष्य शुभचन्द्र आचार्य देव ने संक्षेप से इस अंगपण्णत्त नामक शास्त्र की रचना की है ॥ ५२ ॥
२४४
सत्थविरुद्ध किं पिय जं तं सोहंतु सुदहरा भव्वा । परउवयारणिविट्टा परकज्जयरा सुहावढा ॥५३॥ शास्त्रविरुद्धं किमपि च यत्तत् शोधयन्तु श्रुतधरा भव्याः । परोपकारनिविष्टाः परकार्यकराः सुभावढ्याः ॥ इस ग्रन्थ में जो कुछ भी शास्त्र विरुद्ध लिखा गया हो, तो श्रुत पारगामी, परोपकार करने में निष्ट, दूसरों के कार्य को करने वाले और शोभनीय भावों के धारी - भव्यात्मा इसका संशोधन करें ॥ ५३ ॥
जो णाणहरो भव्वो भावइ जिणसासणं परं दिव्वं । अचलपयं सो पावई सुदणाणुवदेसियं सुद्धं ॥ ५४ ॥ यो ज्ञानधरो भव्यो भावयति जिनशासनं परं दिव्यं । अचलपदं स प्राप्नोति श्रुतज्ञानोपदेशितं शुद्धं ॥ इदि अंगपण्णत्तीए सिद्धंतसमुच्चये बारहअंगसमराणावराभिहाणे तइओ अहियारो सम्मत्तो ॥ ३॥
॥ इदि अंगपण्णत्ती सम्मत्ता ॥
जो ज्ञानी भव्यात्मा पर दिव्य जिनशासन की भावना करता है इसका चिन्तन, मनन करता है । वह श्रुतज्ञान द्वारा उपदिष्ट शुद्ध अचलपद को प्राप्त करता है ॥५४॥
इस प्रकार अंगप्रज्ञप्ति नामक सिद्धान्त समुच्चय में बारह अंग के अभिधान तृतीय अधिकार समाप्त हुआ ।
सं० १८६४ पूषवदी १५ सुतरवंदरे चन्द्रप्रभचैत्यालये लिखितं पण्डित रुपचन्द्रेण स्वज्ञानावरणीय कर्मक्षयार्थं । शुभं भवतु, कल्याणमस्तु ।
श्रीमच्छांति सागरसूरिशिष्य वीरसागराचार्यान्तेवासिनोन्दुमत्यायिकायाशिष्या सुपार्श्वमत्यालिखितत्वा अंगपण्णत्तेः हिन्दीभाषायां नागालैण्डदेशे डीमापुरनगरे चैत्रमासे शुक्लपक्षे त्रयोदशां तिथौ रविवासरे विक्रम संवत् द्विसहस्र सप्तचत्वारिशते वीर संवत् द्विसहस्रपंचशतोत्तरसप्तदशत्तमे निजज्ञानावरणकर्मक्षयार्थं समाप्त कृतं ।
शुभं भूयात्