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तृतीय अधिकार
२४३ गया है । तथापि इस समय धर्मोपदेश के श्रद्धान श्रुत के अंश को आचार्य धारण करते हैं-अर्थात् शुभचन्द्राचार्य कहते हैं कि कालदोष से ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम विशेष न होने से द्वादशांग या एक अंग के ज्ञाता महामुनि इस समय नहीं है तथापि आचार्य परम्परागत धर्मोपदेश के श्रद्धान से श्रुत का ज्ञान अक्षुण्णरूप से आ रहा है ॥४८॥
आइरियपरंपराइं आगदअंगोवदेसणं पढइ । सो चढइ मोक्खसउहं भवो वोहप्पहावेण ॥४९॥
आचार्यपरंपरया आगताङ्गोपदेशनं पठति ।
स चटति मोक्षसौधं भव्यो बोधप्रभावेन ॥ इस आचार्य परम्परागत द्वादशांग के उपदेश को जो भव्य भावपूर्वक पढ़ते हैं। (मनन, चिन्तन, धारण करते हैं) वे भव्यजीव ज्ञान के प्रभाव से मोक्षमहल में आरोहण करते हैं । परम्परा से मुक्तिपद को प्राप्त करते हैं ॥४९॥
शुभचन्द्राचार्य की परम्परा सिरिसयलकित्तिपट्टे आसेसी भुवणकित्तिपरमगुरु । तप्पट्टकमलभाणू भडारओ बोहभूसणओ ॥५०॥
श्री सकलकोतिपट्टे आसीत् भुवनकीर्तिपरमगुरुः ।
तत्पट्टकमलभानुः भट्टारकः बोधभूषणः ॥ सिरिविजकित्तिदेओ गाणासत्थप्पयासओ धीरो। बुहसेवियपयजुयलो, तप्पयवरकलभसलो य ॥५१॥
श्रीविजयकीर्तिदेवो नानाशास्त्रप्रकाशको धीरः ।
बुधसेविदपदयुगलः तत्पदवरकलभसलो य॥ श्री सकलकीर्ति आचार्य के पट्टपर परमगुरु भुवनकीर्ति आसीन थे। उनके पट्ट पर भट्टारक कमलभानु उनके पट्ट पर बोधभूषण ॥५०॥ उनके पट्ट पर नानाशास्त्र के प्रकाशक, धीर, विद्वज्जनों के द्वारा सेवित पदयुगल, बोधभूषण के चरणकेशर में आसक्त भ्रमर श्री विजयकीर्ति देव आसीन हुए थे ॥५१॥
तप्पयसेवणसत्तो तेवेज्जो उहयभासपरिवेई । सुहचन्दो तेण इणं रईयं सत्थं समासेण ॥५२॥
तत्पदसेवनसक्तः त्रैविद्यः उभयभाषापरिसेवी। शुभचन्द्रस्तेनेदं रचितं शास्त्र समासेन ॥