Book Title: Angpanntti
Author(s): Shubhachandra Acharya, Suparshvamati Mataji
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 250
________________ तृतीय अधिकार २२५ सर्वत्र वर्णन करता है तथा अयोग्य आचरण का कथन कर, अयोग्य आचरण होने पर प्रायश्चित्त विधि का वर्णन करता है वह कल्प व्यवहार प्रकीर्ण कहलाता है || २७ ॥ विशेषार्थ अचेलकत्व, उद्दिष्ट भोजन का त्याग, शय्याग्रह, वसतिका बनाने वाले वा सुधारने वाले के घर के आहार का त्याग, राज पिण्ड त्याग, कृतिकर्मसाधुओं की सेवा-विनय करना । व्रत - जिसको व्रत का स्वरूप ज्ञात है उसको व्रत देना, ज्येष्ठ - अपने बड़े साधुओं का योग्य विनय करना । प्रतिक्रमण - प्रतिदिन नित्य लगे हुए दोषों का निराकरण करना । मासैकवासता - एक स्थान में चतुर्मास को छोड़कर शेष समय में एक महीने से अधिक एक स्थान में नहीं रहना, पद्य - वर्षा काल में चार मास एक स्थान में रह सकते हैं इत्यादि रूप से कल्पों का कथन जिसमें है वह कल्प व्यवहार प्रकीर्णक ( शास्त्र ) कहलाता है । ॥ इस प्रकार कल्प का कथन समाप्त हुआ ।। कल्पकल्प प्रकीर्णक का कथन कप्पाकप्पं तं चिय साहूणं जत्थ कम्पमाकप्पं । वणिज्जइ आसिच्चा दव्वं खेत्तं भवं कालं ॥ २८ ॥ कल्पयाकल्प्यं तदेव साधूनां यत्र कल्प्यमकल्प्यं । वर्ण्यते आश्रित्य द्रव्यं क्षेत्रं भवं कालं ॥ इति कप्पाकप्प - इति कल्प्याकप्यं । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर यह मुनियों के कल्प्य करने योग्य है यह अकल्प्य ( नहीं करने योग्य ) है । इस प्रकार का वर्णन जिसमें है वह कल्पाकल्प प्रकीर्णक कहलाता है ॥ २८ ॥ विशेषार्थ आहार-विहार आदि क्रिया में कौनसी किया करने योग्य है, आहार के योग्य कौन से घर हैं, अभोज्य घर में आहार नहीं करना चाहिये आदि सर्व क्रियाओं का वर्णन इसमें किया जाता है । कौनसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आश्रय लेने योग्य है, किस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का त्याग किया जाता है आदि का कथन इसमें पाया जाता है । श्रुतभक्ति में अर्थ में पूज्यपाद स्वामी ने गृहस्थ तथा मुनिराजों के व्रत, क्रिया आदि करने योग्य क्रियाओं का कथन है । ॥ इति कल्पाकल्प समाप्त ॥ १५

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