Book Title: Angpanntti
Author(s): Shubhachandra Acharya, Suparshvamati Mataji
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 252
________________ तृतीय अधिकार રર૭ भी उत्तम संहनन के कारण परीषह एवं उपसर्ग विजयी होते हैं वे जिनकल्पी कहलाते हैं। हीन संहनन वाले पंचम काल के साधु गणों को स्थविरकल्पी कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के शिखर पर सूर्य के सन्मुख खड़े होकर ध्यान आतापन योग है। वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठना, वृक्ष मूल योग है, और शीतकाल में चौराहे पर या नदी के किनारे पर खड़े होकर ध्यान लगाना शीत योग है। __ स्थविरकल्पी साधु त्रिकाल योग धारण करने योग्य हैं कि नहीं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, उत्तम संहनन युक्त जिनकल्पी त्रिकाल योग धारण करते हैं। जब कोई आसन्न भव्य जीव निश्चयनय से भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके तथा व्यवहारनय से आराधना के अभिमुख हुए पंचाचार से युक्त आचार्य को प्राप्त करके बाह्य एवं अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर जिन दीक्षा (दिगम्बर मुद्रा ) धारण करता है वह दीक्षा काल है। __ दीक्षा के अनन्तर परमार्थ से निश्चय, व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्मतत्त्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक आध्यात्मशास्त्रों का और व्यवहारनय से चतुर्विध आराधना का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जब आचार आराधनादि चरणानुयोग ग्रन्थों की शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षा काल है। शिक्षाकाल के पश्चात् निश्चयनय से निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग में 'स्थित होकर जिज्ञासु भव्य प्राणियों को परमात्मा के उपदेश से तथा व्यवहारनय से चरणानुयोग में कथित अनुष्ठान और उसके व्याख्यान के द्वारा पञ्चभावना सहित होता हुआ शिष्य गण का पोषण करता है वह गण पोषण काल है। गण पोषण काल के अनन्तर निश्चयनय से गण को छोड़कर निज परमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह आत्म संस्कार काल है और व्यवहारनय से गण पोषण काल पश्चात् अपने गण (संघ) को छोड़कर आत्मा भावना के संस्कार का इच्छुक होकर परगण ( संघ ) में जाता है वह आत्म संस्कार काल है। - आत्म संस्कार काल के बाद आत्म संस्कार को स्थिर करने के लिए

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