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अंगपण्णत्ति
अनक्षरात्मक है और इसके असंख्यातलोक प्रमाण षट स्थान होते हैं । अक्षर ज्ञान के बाद अक्षरसमास ज्ञान प्रारम्भ होता है, इसके ऊपर पद ज्ञान तक, एक एक अक्षर की वृद्धि होती है, इस अक्षर वृद्धि प्राप्त ज्ञान को अक्षर समास ज्ञान कहते हैं।
लब्ध्यक्षर, निर्वत्यक्षर और संस्थानाक्षर के भेद से अक्षर तीन प्रकार के होते हैं।
सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक से लेकर श्रुतकेवली तक जीवों के 'जितने क्षयोपशम होते हैं उन सब को लब्ध्यक्षर कहते हैं। जीवों के मुख से निकले हुए शब्द की निर्वृत्यक्षर संज्ञा है। निर्वृत्यक्षर व्यक्त और अव्यक्त के भेद से दो प्रकार का है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के ही शब्द . व्यक्त निवृत्यक्षर होता है। दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के अव्यक्त निवृत्यक्षर होते हैं। गाय, भैंस आदि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त की भाषा अव्यक्त निर्वृत्यक्षर रूप है “यह अक्षर है" इस प्रकार अभेदरूप से बुद्धि में जो स्थापना होतो है या जो लिखा जाता है वह स्थापना अक्षर है।
जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी के होता है।
जघन्य निर्वृत्यक्षर दो इन्द्रिय आदि के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी के होता है।
अक्षर ज्ञान के ऊपर संख्यात अक्षरों की वृद्धि पर्यन्त अक्षरसमास ज्ञानरहता है उस अक्षर समास में संख्यात अक्षर मिलाने पर पद नामक श्रुतज्ञान होता है। __ अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यपद के भेद से पद तीन प्रकार का है। जितने अक्षरों के द्वारा अर्थ का ज्ञान होता है वह अर्थ पद है । यह अनवस्थित है क्योंकि इसमें अनियत अक्षरों के द्वारा ज्ञान होता है । जैसे'अ' का अर्थ विष्णु है 'इ' का अर्थ काम है 'क' का अर्थ ब्रह्मा है 'ख' का अर्थ इन्द्रियाँ, आकाश आदि होता है अतः एक अक्षर से भी अर्थ ज्ञान
१. कोई आचार्य अक्षर ज्ञान के ऊपर भी षट स्थान वृद्धि मानते हैंअक्षर ज्ञान से यहाँ लब्ध्यक्षर लेना चाहिए क्योंकि शेष अक्षर जड़ स्वरूप हैं। जिसका क्षय नहीं होता वह केवलज्ञान अक्षरज्ञान है । लब्ध्यक्षर ज्ञान भी नाश रहित है अतः इसको भी अक्षर कहते हैं।